फिर युद्ध …
फिर छिड़ गया एक युद्ध
और फिर से हरी होने लगी
वह पहले और दूसरे
युद्ध की यादें
फिर होगी भारी तबाही
गमगीन माहौल
बेसुध जख्मी लोग
और यहाँ-वहाँ
बिखरी लाशें
कैसी विडंबना है?
इंसान ही इंसान का दुश्मन
क्या मिलेगा उसे
जिसने हृदय में इतनी
नफरत को पाला है
वह अवश्य ही
हृदय विहिन होगा
पर निर्दोष लोगों का क्या
जिनके सपने आँखों
में ही दफन हो गये
वो आसमान में
विचरते पक्षी
धमाका सुनकर ही
गिर पड़े होंगे
जमीन पर
वह तो इस मनुष्य
जाति के भी नहीं
वह तो नफरत को
जानते तक नहीं
वो घरों में सहमे
बच्चे -बूढ़े किस दर्द
से पल -पल
गुजर रहे होंगे
बर्बाद होती फसलें
टूटते मकान
बिखरती जिंदगियां
और वह हँस रहा
दूर से देख अपने
कुकृत्यों को
क्या छोटी सी जिंदगी
में इतने जरूरी हैं युद्ध?
जबकि वह भी जानता है
कि उसका भी अस्तित्व
मिट जाना है एक दिन
पर भूल बैठा है
वरना इतिहास में कैसे
दर्ज होगा नाम
इस नफरत के
बादशाह का
जो एक बार
फिर रक्त रंजित
कर देना चाहता है
ये सुंदर दुनिया।
©दीपा काडंपाल