लेखक की कलम से

साधक …

किसी चौराहे पर घूमते रहना,

अक़्सर घूमना नहीं होता,

वह कभी-कभी टहलना भी होता है,

उस समय केवल शरीर ही नहीं टहलता,

उसके साथ टहलती हैं, दुःख, दर्द और चिंताएँ,

ठीक उसी समय, टहलता है अंतर्मन,

जैसे टहलता है आसमान,

हमारे साथ, हमारे हर कदम पर,

जैसे टहलती है नाँव,

लहरों के संग, मद्धम-मद्धम,

जैसे उड़ता है पंक्षी,

हवा की झोंको से लिपटकर,

और भूल जाता है अपना सब कुछ,

कर देता है विसिरत, अपना समस्त दुःख,

और हो जाता है पुनः स्वस्थ,

ठीक वैसे ही, मैं भी,

टहलने निकल जाया करता हूँ।

©विजय बागची, संतकबीर नगर, उत्तरप्रदेश  

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