लेखक की कलम से
दर्द …
कहा है किसी शायर ने
ज़ख्म कैसे भी हों
एक दिन भर जाते हैं,
वक़्त के प्रहाव में
दर्द सारे बह जाते हैं।
परक्या यह सच है पूरा!!!
ज़ख्म के निशान नहीं रह जाते!!!
दर्द का अहसास तो
ठहर जाता है न!!!
और ये निशान, ये अहसास
स्मृति में बनाये नही रखते
उन घावों को, उन पीड़ाओं को!!!
क्या हम भूल पाते हैं उन्हें
जिन्होंने शब्दों के आघातों से
दी है हमें असहनीय पीड़ाएँ!!!
हम कहाँ रह पाते हैं उनसे
पहले से सहज, सरल!!
छोटा सा ही सही
एक अलगाव बना रहता है
आहत मन के कोने में।
सूत सा ही सही
पड़ ही जाती है एक दरार
रिश्तों के मजबूत दीवारों में भी……..
©सविता व्यास, इंदौर, एमपी