लेखक की कलम से

अख़बार वाला

मैं अपने कमरे में बंद,

मेरा बदन रजाई में बंद,

सुबह सुबह उठकर इंतज़ार कर रहा मैं,

अख़बार वाले का ।

आज देर कर दी है उसने,

अब तक अख़बार दरवाजे के फाँक से धकेल देता था,

पर आज न जाने क्यों देर हो गई ?

मन ही मन मैं झुँझला रहा,

गुस्सा आ रहा है अख़बार वाले पर,

पर राम नाम के बेला में उसके लिए गाली ठीक नहीं,

मेरा तो ड़ेली रूटिन आज ध्वस्त हो जाएगा,

अख़बार पढ़ लेने के बाद ही ब्रश करने की थी आदत,

बिस्तर कह रहा…’अभी मत छोड़ो मेरा साथ’

खिड़की, दरवाजे भी मना कर रहे मुझे,

कह रहे अभी सोने दो, अभी मत ही खोलना ।

बिजली तभी गुल ! कमरे में घुप्प अंधेरा ।

मेरे दाहिने हाथ ने गज़ब की हिम्मत जुटाई,

 रजाई से निकल किया इमर्जेंसी के स्वीच की तलाश,

और अपना काम करते ही झट रजाई के अंदर,

जैसे दुनिया भर की ठंड़ उसे ही है,

इमरजेंसी की रोशनी भी उठी है,

गुस्साई हुई, अलसाई हुई, ठिठुरी सी,

उसे अभी और सोने का मन था,

तभी दरवाजे पर सरसराहट,

अख़बार वाले की आहट,

मैं लपका ——,

अख़बार था कमरे के अंदर,

मैं अब अखबार के अंदर,

हथेलियाँ अख़बार के पन्ने पलटने को बेताब,

पर आलस से भरी हुई, ठंड़ से ड़री हुई ।

अख़बार पूरा खत्म, अब ब्रश करनी है,

दरवाजा खोलता हूँ,

बाहर कुहासा खड़ा है स्वागत में,

ठंडी ठंड़ी लहर मुफ्त उसके साथ में,

चार स्वेटरों पर लिपटा बदन सिहर उठता है ।

दरवाजा फिर से बंद,

सोचता हूँ,

“अख़बार वाला आज जल्दी अख़बार दे गया !”

©अनंत ज्ञान, हज़ारीबाग (झारखंड़)

परिचय :- ज्यूड़िशियल असिस्टेंट, सिविल कोर्ट, हज़ारीबाग, महासचिव, राष्ट्रीय कवि संगम।

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