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मातृभाषा और बोली को सहेजने की जरूरत – प्रमोद दीक्षित

बांदा। मातृभाषा मानव जीवन में आनन्द का उत्सव है, लोक का अप्रतिम प्रसाद है और अवसाद से मुक्ति का द्वार भी। यह कुछ नया रचने-गुनने और चिंतन-मनन करने की आधारभूमि है। मातृभाषा है तो जीवन में उमंग, उत्साह की उत्ताल तरंगें हैं। वास्तव में मातृभाषा स्वयं की सहज अभिव्यक्ति और कल्पना के इंद्रधनुषी रंगों को साकार करने का एक फलक है। मातृभाषा में कड़ाही में गुड़ बनाने के लिए पक रहे गन्ने के रस की सोंधी सुगंध और मिठास होती है।

मातृभाषा में किसी पहाड़ी झरने की मोहक ध्वनि सा सरस सुमधुर संगीत और गत्यात्मकता होती है। वह नित नये शब्द बुनती नवल रूप ग्रहण करती है। वह जीवन का स्पन्दन हैं, प्राण हैं। कोई व्यक्ति भले ही कितने बढ़े पद पर पहुंच जाये पर हर्ष, दुःख, प्रेम और क्रोध के अत्यधिक आवेग में उसके कंठ से सहसा मातृभाषा का स्वर ही फूटता है। यह मातृभाषा की जीवन्तता और जीवन में बसाहट का द्योतक है। तभी भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को कहना पड़ा – निज भाषा उन्नति है, सब उन्नति को मूल। बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटै न हिय को शूल।

मातृभाषा के सम्बंध में अभी भी स्पष्ट परिभाषा का अभाव दिखता है। मातृभाषा से आशय किसी बच्चे को उसकी माता से प्राप्त होने वाली भाषा के अर्थ में किया जाता है। लेकिन यह मातृभाषा के व्यापक फलक को सीमित और संकुचित कर देना है। मेरे मत में मातृभाषा किसी व्यक्ति के बचपन में उसके परिवेश में कार्य-व्यवहार की वह सामान्य भाषा है जिसमें उसने लोक से सम्पर्क एवं संवाद किया है, भले ही वह उसकी मां की भाषा से अलग रही हो।

तो हम कह सकते हैं कि मातृभाषा किसी व्यक्ति की सामाजिक एवं सांस्कृतिक पहचान होती है। मातृभाषा का स्थान वास्तव में कोई दूसरी भाषा कभी भी नहीं ले सकती। इसलिए मातृभाषा को न केवल संरक्षित रखना बल्कि सवंर्धित करते हुए अगली पीढ़ी को सौपना हमारी सामाजिक, भाषाई नैतिक जिम्मेदाराी है। इस दृष्टि से यूनेस्को द्वारा विश्व भर में 21 फरवरी को अन्तरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाया जाता है।

भाषाई और सांस्कृतिक विशेषताएं एवं बहुभाषावाद के बारे में वैश्विक जन-जागरूकता को बढ़ावा देने के उद्देश्य से संयुक्त राष्ट्रसंघ की संस्था यूनेस्को द्वारा प्रत्येक वर्ष 21 फरवरी को अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाया जाता है। अगर इस दिवस का ऐतिहासिक संदर्भ देखें तो अपनी मातृभाषा के लिए प्राणों का उत्सर्ग कर देने की प्रेरक घटना समृति पटल पर उभरती है। वास्तव में मातृभाषा दिवस को बांग्लादेशी विद्यार्थियों की अपनी भाषा की रक्षा के लिए छठे दशक के मध्य में पाकिस्तानी सरकार के विरुद्ध हुए संघर्ष में विजय के उत्सव के रूप में देखा जाना चाहिए, जिन्होंने पाकिस्तान द्वारा 1948 में उर्दू को राष्ट्रभाषा बनाकर पूर्वी पाकिस्तान के बांग्लाभाषी आम जनता पर थोपने के कुत्सित बलात् प्रयास के विरुद्ध अपनी मातृभाषा बांग्ला के अस्तित्व की लड़ाई में उठ खड़े हुए आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

तत्कालीन पाकिस्तानी सरकार ने ढाका विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों एवं सामाजिक कार्यकर्ताओं के इस भाषाई आंदोलन को बर्बरतापूर्वक कुचलने के लिए विद्यार्थियों के ऊपर पुलिस द्वारा गोली चलवाई थी, जिसमें कुछ विद्यार्थी मारे गए, सैकड़ों लापता हुए। अमानवीय काले इतिहास की वह तारीख 21 फरवरी थी। तो विद्याार्थियों के इस अतुल्य बलिदान की स्मृति में सम्पूर्ण बांग्ला देश (तब पूर्वी पाकिस्तान) में प्रतिवर्ष 21 फरवरी को अपनी मातृभाषा बांग्ला को राजकीय आधिकारिक दर्जा देने की मांग के साथ छोटे-बड़े हजारों कार्यक्रम आयोजित किये जाते रहे हैं।

आखिरकार 29 फरवरी 1956 को पाकिस्तानी सरकार ने बांग्ला भाषा को दूसरी आधिकारिक राष्ट्रभाषा का दर्जा प्रदान कर दिया। तब से 21 फरवरी को प्रति वर्ष बांग्लादेशी मातृभाषा दिवस का आयोजन करते हुए संयुक्त राष्ट्रसंघ से मांग करते रहे हैं कि 21 फरवरी को अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के रूप में मान्यता प्रदान की जाये। उनकी इस मांग के आधार मातृभाषा के संरक्षण एवं संवर्धन के महत्व को स्वीकारते हुए यूनेस्को ने 17 नवंबर 1999 को इसकी स्वीकृति देते हुए वर्ष 2000 से इस दिवस को सम्पूर्ण विश्व में मनाने की घोषणा की। और तब से आधिकारिक रूप से राष्ट्रसंघ से जुड़े सभी देशों में यह दिवस अपनी मातृभाषा-बोली को स्मरण करने, बचाये रखने एवं अगली पीढ़ी तक पहुंचाये जाने के महतवपूर्ण अवसर के रूप में मनाया जाता है। उल्लेखनीय है कि 21 फरवरी को बांग्लादेश में राष्ट्रीय अवकाश घोषित है।

पर वर्तमान समय मातृभाषा-बोलियों पर संकट का है। दैनंदिन जीवन में बढ़ते तकनीकी उपकरणों के व्यामोह, आर्थिक सुदृढता के लिए पलायन करने, मुट्ठी में सिमटती-समाती दुनिया के कारण दैनिक कार्य व्यवहार में मातृभाषा के प्रयोग के अवसर बहुत सीमित हुए है। एक शोध-सर्वेक्षण के अनुसार विश्व में बोले जाने वाली लगभग 6900 भाषा-बोलियों में से 3000 भाषाएं मरणासन्न हैं। लगभग प्रतिदिन एक बोली मरने को विवश है। विश्व की सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाएं केवल 10 हैं जिनमें जापानी, रूसी, बांग्ला, पुर्तगाली, हिंदी, अरबी, पंजाबी, मंदारिन और स्पेनिश सम्मिलित है।

विश्व की कुल आबादी का 60 प्रतिशत केवल 30 प्रमुख भाषा में अपना कार्य व्यवहार संपादित करता है। आने वाले तीन-चार दशकों में विश्व की 5000 से अधिक भाषाएं खत्म होने के कगार पर हैं। भारत का संदर्भ लें तो 1961 की जनगणना में भारत में 1652 भाषाएं थीं जो अब 1300 के करीब शेष बची हैं और आगामी जनगणना में यह आंकड़ा और नीचे जायेगा, ऐसा माना जा सकता है। भारत में 30 भाषाएं ऐसी हैं जिनके बोलने वालों की संख्या 10 लाख के आसपास ही है। 7 भाषाएं ऐसी कि जिनके जानकार एक लाख से ज्यादा नहीं है।

122 भाषाएं ऐसी हैं जिनके बोलने वालों की संख्या केवल दस हजार ही बची है। कुछ भाषा-बोली, विशेषरूप से जनजातीय समाज, के व्यवहार करने वाले तो केवल अंगुलियों में गिने जा सकते हैं। मातृभाषा रोजगारोन्मुख न होने के कारण गैरयूरोपीय देशों की बड़ी आबादी अंग्रेजी सीख रही है। जो रोजगार का द्वार तो खोल रही है पर अपनी जड़ों से काट रही है। महात्मा गांधी मातृभाषा की पैरवी करते हुए बच्चों या व्यक्तियों को अंग्रेजी सिखाने के प्रयासों को गुलाम मनोवृत्ति का पोषक मानते थे।

बच्चों के सीखने में विदेशी भाषा का माध्यम उनमें अनावश्यक दबाव, रटने एवं नकल करने की प्रवृत्ति को बढ़ाता है। वह उसकी मौलिकता का हरण कर लेता है। यूरोप में हुए एक शोध से यह तथ्य सामने आया कि जो बच्चे स्कूलों में अंग्रेजी का प्रयोग करते हैं और घरों पर मातृभाषा का प्रयोग करते हैं वे दूसरे बच्चों की अपेक्षा कहीं अधिक बुद्धिमान और मेधावी होते हैं। भारत के पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने कहा था कि मैं अच्छा वैज्ञानिक इसलिए बन सका क्योंकि गणित और विज्ञान की शिक्षा मातृभाषा में प्राप्त की थी।

तो संयुक्त राष्ट्रसंघ ने व्यक्ति के विकास में मात्भाषा की भूमिका स्वीकारते हुए 2008 को अंतरराष्ट्रीय भाषा वर्ष घोषित किया। गतवर्ष के आयोजन के थीम विषय ‘विकास, शांति और संधि में देशज भाषाओं की भूमिका’ से इस दिवस की गम्भीरता स्पष्ट है। विश्व के कई देशों ने स्मारक बनाकर मातृभाषा के महत्व को रेखांकित किया है। जिनमें सिडनी स्थित ‘अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस स्मारक’ एवं ढाका ‘शहीद स्मारक मीनार’ प्रेरक एवं उल्लेखनीय है। वास्तव में यह दिवस अपनी मातृभाषा और बोली के सहेजने-संवारने और दैनंदिन जीवन में अधिकाधिक व्यवहार करने के संकल्प का दिन है।

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