लेखक की कलम से

माँ तो माँ ही होती है.. बाकी तो जे है से हइए है

लेख

मेरे इस प्रवासी शहर में ठंड तो नही पड़ती पर बारिश की हल्की बौछार भी ठंड की तासिर ला देती है, और तब बस एक ही चीज है इस नाचीज़ दुनिया की जिसकी बेसाख़्ता याद आती है, वो है माँ के हाथ के पकौड़े। लगता है काश माँ आके अभी हाथ मे पकड़ा जाये, तभी याद आता है कि “माँ” तो अब खुद ही हूँ। अभी कल ही तो मुकेश नेमा सर के वाल पर पढ़ा था,

गहरी नींद में सोयी

यह युवा माँ

अपने शिशु के

कुनमुनाने भर से

जाग जाती है

अभी बहुत दिन

बीते नही है

जब इस नवजात का

प्रवेश हुआ नहीं था

इसके जीवन मे !

और तब इसे

जगा पाना

नगाड़ों के बस में भी

नहीं हुआ करता था

माँ के जगाने से ही

जागती थी यह लड़की

अब माँ होकर

सीख गयी है

खुद जागना !

तो ये माँ भी खुद ही चल दी अपना हाथ जलाने। पर एक शाश्वत सत्य ये भी है कि माँ तो माँ ही होती है, हर जगह अपने सुक्ष्म रूप में मौजूद। जैसे ही बेसन में हाथ डाला, याद आया कैसे माँ ने इस बार गांव के प्रवास पर खुद बिटेसर माई के संग जांते पर पीसकर दीया था।

जांता यानी चक्की, वही चक्की जिसे पिसाई के काम लिया जाता है। मूलतः दो पत्थर के पाटों का एक दूसरे के ऊपर किले के सहारे से रखा गया अस्तित्व, जिसके बीच मे साबुत अनाज को दरा (दो टुकड़े में करना) या पिसा जाता है। जांता या चक्की तो लगभग एक दूसरे के पर्याय के रूप में इस्तेमाल किया जाता है, पर कार्य के रूप में देखा जाये तो जांता महीन पिसाई के लिए प्रयुक्त होता है (जैसे कि सत्तू या बेसन का पीसना) जो कि स्वरूप में थोड़ा भारी और बडा होता है, जिसे कम से कम दो लोग खींचते हैं, वही चक्की थोड़ा छोटा और वनिस्पत थोड़ा हल्का जिसका काम साबुत अनाज को दो भागों में विभाजित करना, जैसे कि दाल बनाना।

जब मशीनी उपकरण अनुपलब्ध थे तो पिसान के लिए मुख्यतः औरतें जांता पर ही निर्भर थी, वैसे आज का चक्की मशीन भी जांता का ही एक रूप है बस अंतर इतना है कि श्रम मानव का न होके, बिजली का हो गया है। यूँ ही तो संत कबीर ने इस चक्की की तुलना खुदा या भगवान से नही की है-

“ये दुनिया कितनी बाबरी,

जो पत्थर पूजन जाये।

घर की चाकी कोई ना पूजे,

जाका पिसा खाये।”

या फिर,

“पत्थर पूजे हरि मीले,

तो मैं पूजूँ पहाड़।

इससे तो चाकी भली,

पिसा खाये संसार।

अब बात श्रम की है और औरतें ही श्रमिक हैं तो ऐसा कैसे हो सकता है कि हमारे गीत गवनई वाले प्रदेश में ये वर्ग अछूता रह जाता। पूर्वोत्तर राज्यों के गीतों में श्रम गीतों का भी अपना एक महत्वपूर्ण स्थान है।हर श्रम का अलग गीत और अलग अलग नामकरण भी जैसे कि रोपनी,इत्यादि। ऐसे ही,जातें को चलाते वक्त गाये जाने वाले गीत को “जांतसार” बोलते हैं,जो कि मुख्यतः औरतों द्वारा गाया जाता है। शायद इसलिए ही इसके बोलों में मायके ससुराल, रिश्ते नातो को ही तव्वजों दी जाती है।ऐसा ही एक गीत जो पिछले दिनों सुना है, उसके बोल हैं।

“आवत देखा सासु दुइ बनियरवा हो ना,

सासु एक गोरा एक सांवर हो ना,

गोरा तो है सासु ननदी के भइया हो ना,

सासु संवरा हमार वीरन भइया हो ना,

बारहे बरिसवा पे लौटे वीरन भइया हो ना,

सासु आजु का बिजहि रसोइया हो ना,

बनरा रे मोरी बहु दिनहि के भतवा हो ना,

ता ओपे काल्हु के सगवा हो ना,

अगिया लगाऊ सासु दिनहि के भतवा हो ना,

सासु बजरी परे काल्हु के सगवा हो ना।….”

इस गीत में ” एक बहु अपनी सास से कहती है कि सासु माँ, दो आते लोग मुझे दिख रहे हैं, जिनमें से एक गोरा एक साँवला है, गोरा जो है वो तो मेरी ननद का भाई है, और जो साँवला है वो मेरा वीर भइया है।बारह वर्षों के बाद मेरा वीर भाई लौटा है, आज उसके स्वागत में क्या रसोई बनाऊ। तो सास कहती है रसोई ख़ास क्या बनाना है रे मेरी बहु दिन के चावल पड़े हैं और कल का बना साग भी तो है वही खिला देना।फिर बहु गुस्से में बोलती है आग लगे दिन के भात को वज्र पड़े कल के साग को।”

जानती हूँ भले मेरी प्लेट के पकौड़े का स्वाद आपकी जिव्हा तक न पहुंचा हो, पर शर्त लगा के कह सकती हूं कि जांता के पिसान का स्वाद और जांतसार के गीत के बोल आपके होंठों को जरूर लगे होंगे। जरा जीभ फिरा के  तो देखिए। बाकी तो जे है से हइए है।

विजया एस कुमार

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