प्यार नहीं प्रेम …
प्यार नहीं प्रेम हो गया है मुझे
प्यार से कई सीढ़ी ऊपर है प्रेम
कहने को तो वह प्यार का पर्यायवाची है
पर सच पूछिये तो इनमें
कई हजार गुना फासला हो ता है आपस में …..
प्रेम
हाँ प्रेम ! सम्पूर्ण होता है यह शब्द अपने आप में….
यह इबादत तक पहुंचा देता है
स्नेह के भाव को ….
जब किसी से बंधती है प्रेम की डोर
सहजता से छूटती,टूटती नहीं है यह डोर….
सारी उलझनें,परेशानियां,दुश्वारियां
हो जाती हैं काफ़ूर
प्रेम का भाव ही होता है परिनिष्ठित
शुद्धता,एकबध्यता से जीवन हो जाता है
पल्लवित और पुष्पित
न लौटने का ठहराव
न एकरसता का आभास
एकनिष्ठता में होती है तो बस
पिया मिलन की आस !
हाँ होता है अंधविश्वास
पर उसमें ही निहित होता है
प्रिय प्राप्ति का विश्वास
एकाकीपन में भी प्रिय के साथ होने का
होता है सुखद एहसास !
स्तुति
आराधना
पूजा-अर्चना
जो भी कुछ होता है
उसके केंद्र में
सिर्फ और सिर्फ
प्रेयसी और प्रियतम
का बिम्ब ही प्रतिबिम्बित होता है !
वटवृक्ष की छाया
बन जाता है प्रेम
इहलोक से परलोक तक
सहजता से कठिनता तक की यात्रा
हो जाती है निर्बाध
कहीं कोई विघ्न नहीं करता बाधित
अनंत की यात्रा हो जाती है अनंत !
प्रेम की प्रबलता
उत्ताल लहरों के थपेड़ों को सहते हुए भी….
जीवन समुद्र को
करा देती है सहजता से पार !
रंचमात्र अंश में समिश्रित होकर
अपृथक अंश बना देता है जीवन को प्रेम !
प्रेम ही अनुराग में हो जाता है परिवर्तित
अपनत्व से हो जाता है सराबोर
कर देता है,सहरा से जीवन को….
मीठी झील में परिवर्तित
और कह उठता है
प्रेम, प्यार से,
कि बहुत ऊपर हूँ
मैं तुमसे…….
वही हो गया है मुझे तुमसे…..
प्यार नहीं प्रेम !!!
©अल्पना सिंह, शिक्षिका, कोलकाता