लेखक की कलम से

महिला सशक्तिकरण समाज और राजनीति …

जब से सृष्टि की रचना हुई है, तब से ही शायद हम नारी को सशक्त करने की बात सोच रहे हैं। वह शायद इसलिए क्योंकि प्रकृति ने नारी को कोमल, ममतामयी, करुणामयी, सहनशील, आदि गुणों से भरपूर बनाया है। तब से लेकर आज तक हम नारी को हर रूप में सशक्त करने के बात सोच रहे हैं। और आज तक नारी कितनी सशक्त हुई है, कितनी सबल हो चुकी है, यह हम सब जानते हैं। यह सब बातें प्रमाणिक है और इन सब का हमारे जीवन पर अत्यधिक प्रभाव भी पड़ता है, या यूं कहें कि पड़ता जा रहा है।

परंतु इन सबसे हटकर मैं आज नारी सशक्तिकरण के दूसरे पहलू पर आपका ध्यानाकर्षित करना चाहती हूं। नारी तो प्रारंभ से ही सशक्त है। इसका प्रमाण तो पग – पग पर मिलता है। ये क्या प्रमाण हैं, इन सबको बताने से पहले मै यहां यह स्पष्ट करना चाहती हूं कि नारी को यह महसूस क्यों हुआ कि उसे सशक्त होना है, होना पड़ेगा, और होना ही चाहिए…?? वो इसलिए कि हमारे समाज में कई लोग उसकी क्षमता को पहचान नहीं पाए, जान नहीं पाए, और जान पाए तो, मान नहीं पाए, या मानना ही नहीं चाहते है कि नारी हर क्षेत्र में, हर काम में, बेहतर हो सकती है। इसलिए अपने आप को प्रमाणित करने के लिए, अपने अस्तित्व के अनेकों रुपों को दिखाने के लिए ही उसे सशक्त बनाने की आवश्यकता पड़ी (पर सच तो ये है कि सशक्त तो वह है ही। )

अब हम सशक्तिकरण की बात करते हैं, तो सबसे पहले हम सब अपने अस्तित्व, अपने वजूद की बात करें तो हमें बनाने वाली कौन है ? एक नारी। सृजन शक्ति ईश्वर ने पृथ्वी, और नारी को ही प्रदान की है (हलांकि उसमें बीच तत्व की महिमा को, उसकी आवश्यकता को नकारा नहीं जा सकता) इसके परिप्रेक्ष में मैं दो पंक्तियां कहना चाहूंगी—-

  • “मां है तो श्री है, आधार है,
  • क्योंकि प्रकृति, धरती एक माँ का ही तो प्रकार है।
  • माँ वो है जो खुद मिट कर, औरों को बनाती है, क्योंकि पत्थर पर पिस कर ही, हिना रंग लाती है।
  • मां और माटी का सदियों पुराना नाता है,
  • चाह कर भी भला, इन दोनों की हस्ती को कौन मिटा पाता है,
  • एक जननी है, तो दूसरी मातृभूमि भारत माता है”।

 

हमारे वजूद को जिसने बनाया, निर्मित किया वो एक नारी है और हमारी धरती मां, एक नारी का ही रूप है जिसकी बदौलत हम अपने इस वजूद को सुरक्षित रख पा रहे हैं। और हम सब भारत मां की संतान हैं। यह हमारी खुशनसीबी है। यहाँ भी माता की आवश्यकता एवं महत्ता दर्शनीय है।

नारी हर रूप में एक शक्ति है। वह पुरुष को जन्म देती है, उसका पालन करती है (एक मां के रूप में) आजीवन उसका साथ देती है (एक पत्नी के रुप में) जिम्मेदार बनाती है, सोचने का नजरिया बदलती है, (एक बेटी के रूप में) और जीवन को आलंबन देती है (पुत्र वधू के रूप में)।

यानि जीवन के हर पड़ाव में, हर रिश्ते में वह सशक्त है। यहां सशक्तिकरण भावनात्मक स्तर का है क्योंकि सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय सशक्तिकरण की बातें तो सभी कर रहे हैं, और इन सबके बारे में सभी जानते भी हैं।

महिलाएं यदि वास्तव में पुरुषों के समकक्ष होती तो शायद इक्कसवीं शताब्दी में ‘महिला सशक्तिकरण’ नामक शब्द आज प्रचलन में नहीं होता। महिला सशक्तिकरण का हम उसके स्वयं के आत्मबल से साक्षात्कार के रूप में देख या समझ सकते हैं। महिला सशक्तिकरण एक ऐसा शब्द है जिसे सुनते ही लगता है महिलाओं की स्थिति ऐसी है जिसमें बहुत सुधार की जरूरत है। महिला सशक्तिकरण में सबसे बड़ी बाधक बात यह है कि महिलाएं स्वयं से परिचित नहीं है अर्थात स्वयं की शक्ति से परिचित नहीं है। यही साक्षात्कार खुद की शक्ति से कुछ स्त्रियों को हुआ जिसे हम आज मदर टेरेसा, एनी बेसेंट, लक्ष्मीबाई, कल्पना चावला, किरण वेदी के नाम से जानते हैं। क्या पुरुष सशक्तिकरण नामक कोई शब्द है? नहीं! सम्भव हो यदि कलियुग के बाद कोई ऐसा युग आये जो पुरुषसत्तात्मक की भांति मातृसत्तात्मक हो और उस समय पुरुष सशक्तिकरण उतना ही प्रासंगिक हो जितना कि वर्तमान महिला सशक्तिकरण। तब समझ में आये कि किसी का सशक्त होना किसी सौभाग्य से कम नहीं।

सशक्तिकरण एक शब्द नहीं अपितु एक मानसिकता है जो सबके दिमाग में घर बना के बैठ गया है। अब ऐसे में बात आती है समाज और राजनीति की तो सबसे पहले हम बात करेंगे प्राचीन भारतीय इतिहास और उसमें नारियों के स्थिति की। ऋग्वैदिक कालखण्ड को अगर देखे तो पाते हैं कि स्त्रियों को उतना अधिकार था जितना कि पुरुषों का इस समाज पर। सभा और समिति नाम की संस्थाओं में भी स्त्रियों स्थान हुआ करता था। बहुत सारी विदुषी हुआ करती थी उस दौर में, जिनका आज भी गुणगान किया जाता है।

आजकल स्त्री- विमर्श के नाम पर जो कुछ हो रहा है, वह किसी से छिपा नहीं है। दरअसल स्त्री विमर्श की चीज है ही नहीं। वह तो घर की बैकबोन है। कहते हैं न “बिन घरनी घर भूत का डेरा”। गृहस्वामिनी और गृहस्वामी मिलकर परिवार चलाते व वंश वृद्धि करते हैं। इस तरह एक दम्पति समाज को सुचारु रूप से चलने में अपना योगदान देते हैं। स्त्री -पुरूष दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों में से किसी एक की अनुपस्थिति में परिवार की परिकल्पना भी नहीं की जा सकती। फिर आखिर अलग से स्त्री -विमर्श की जरूरत क्यों पड़ी…? आखिर कैसे गृहस्वामिनी मुख्यधारा से हाशिये में चली गई …?अगर वह सचमुच हाशिये पर है तो हम उन्हें मुख्यधारा में लाने के लिए क्या प्रयास कर रहे हैं…?

इसे जानने के लिए हम सभी को अपने- अपने अतीत में जाना होगा। मैं जब अपने बचपन में जाती हूं तो मेरे मस्तिष्क में अपनी नानी, परनानी का चेहरा उभरता है। उभरते है नाना जी एवं पर नाना जी के अक्स कि कैसे स्त्रियां घर की पूर्ण जिम्मेदारी अपने कंधे पर रखती थीं।

 घर में कितना अनाज है, किन बच्चों के पास कपड़े हैं, किनकी क्या जरूरत है…….सबका हिसाब सिर्फ स्त्रियों के पास था। हर -एक संयुक्त परिवार में सबसे बुद्धिमान स्त्री मालकिन हो जाती थी। बाकी सभी को उनका निर्णय मानना होता था। इसी तरह सबसे ज्यादा समझदार व अर्थ उपार्जन करने वाले पुरूष मालिक होते थे। जिन पर पूरे परिवार चलाने की जिम्मेदारी थी। एक को मुसीबत आए तो पूरा परिवार खड़ा हो जाता था। परिवार पर मुसीबत आए, तो समाज उसके दुख को अपना दुख समझ दिन-रात उस परिवार की सहायता में लगा रहता। फिर यह कौन -सी संस्कृति आई जो सब कुछ तहस-नहस कर चली गई। अपने माता-पिता के क्रिया -कर्म के लिए 13 दिन भी नहीं निकाल पाते बच्चे !यह कैसा विकास है? यह कैसी संस्कृति है …?

यदि महिलाएं वास्तव में सशक्तिकरण चाहती हैं तो स्त्री- विमर्श की पहली सीढ़ी “शिक्षा” को अपना हथियार बना कर, स्त्री सशक्तिकरण की दिशा में सार्थक प्रयास करिये। शुरुआत अपने काम वाली बाई या उनके बच्चों से करें। इससे बड़ा स्त्री- विमर्श कुछ नहीं हो सकता। मेरा मानना है कि किसी को आर्थिक सहायता करने से कई गुणा अच्छा है कि हम उसमें अर्थ उपार्जित करने का हुनर दे दें। स्त्री-विमर्श की पहली सफलता स्त्री के शिक्षित और स्वावलंबी होने में है…।

मैंने कई दफा सुना है सूदूर देहात इलाके में सर न ढाकने की वजह से कोई महिला रुई की तरह धुन दी जाती है, कही मायके जाने की पूछने पर प्रताड़ित की जा रही है तो कही छेड़छाड़ से आहत होकर मिट्टी तेल डाल खुद को आग लगा रही है। मैंने इतनी सशक्त महिला के बारे में भी पढा है जो बेहतर कैरियर के लिए अपने परिवार की इच्छा के विरुद्ध अकेली अमेरिका चली गयी। अलग अलग पृष्ठभूमि की महिलाओं के संघर्ष को एक ही पैमाने पर रखकर “नारी सशक्तिकरण” के लिए लिखना मेरे लिए मुश्किल काम है।

पत्नी, बहू या माँ से यह अपेक्षा गलत है कि वो हर सामान आपके हाथ में थमाए क्योकि वह आर्थिक दृष्टि से घर में अनुत्पादक तत्व है। 1000 रुपये माँगने के लिए एक स्त्री को जब हजार बार हाथ फैलाना पड़े तो उसका स्वाभिमान कितनी मौत मरता है ये सिर्फ वह जानती है। तमाम अपमान, अवहेलना या नारकीय परिस्थितियों का सबसे बड़ा कारण महिलाओं का पुरुष सदस्यों पर आर्थिक निर्भरता है। बेटियों को इतना शिक्षित करिए कि वे जीवनयापन के लिए किसी पर आश्रित न हो। उसे “दहेज़” नहीं “शिक्षा” दीजिये …। एक औरत को सबसे ज्यादा संघर्ष चारदीवारी के भीतर ही करना होता है। शिक्षा का समान अधिकार ही महिला सशक्तिकरण है…।

मैं महिलाओं से एक सवाल करती हूँ कि क्या आपने “मनोविज्ञान” पढा है… ?? काम, क्रोध, लोभ, मोह, व्यग्रता, अहंकार सामान्य “मानसिक विकार” है जो कम या अधिक मात्रा में सभी में होते ही है। आप ऐसी कोरी कल्पना में है जहाँ मानव जाति के ये स्वाभाविक विकार समाप्त हो जाए। आप बिकनी या शॉर्ट्स में है तो किसी का आप पर हँसना, छिपकर या पलटकर देखना किसी अपराध की श्रेणी में नहीं आता जब तक कि वह फूहड़ या अश्लील इशारेबाजी न करे। इन सबसे बचने के दो तरीके है। या तो ऐसे बेहूदा लोगो के घूरने से आप बिल्कुल बेअसर रहिये या दूसरा इन परिस्थितियों से दूर रहिये। ..आपकी बेतुकी जिद कि “आप अर्धनग्न हो और कोई आपको देखे नही” …यह बेतुका शोर मचाना महज़ पब्लिसिटी स्टंट माना जाएगा। हमें हमारे देश में महिला सुरक्षा की जमीनी हकीकत पता है। हमें सावधान होना ही होगा। सड़कों पर आधी रात भी महिलाएँ निकले और परिवार को सुकून से नींद आ जाए ये गारंटी देना सरकार का काम है, हमारे तंत्र का कर्तव्य है। तब है असल “नारी सशक्तिकरण”…।

कोई महिला किसी यौन अपराध का शिकार हो जाती है तो उसके सामाजिक सम्मान में कोई कमी न आए इस बात के लिए लोगों के नजरिये में सकारात्मक बदलाव की पहल ही नारी स्वतंत्रता का असल आंदोलन। “महिला यौन शोषण” वास्तव में गम्भीर समस्या है। लोक लाज से आतंकित महिलाएँ सामने नहीं आती और अपने साथ हुए दुष्कर्म को दुःस्वप्न की तरह भुलाने की कोशिश करती है। समाज में कई सफेदपोश सिर्फ इसलिए बच जाते है कि मामला सामने आने पर अपराधी नहीं पीड़िता की मानहानि होगी। अपनी बेटियों को हौसला और हिम्मत दीजिये कि उनकी अस्मिता को चोट पहुँचाने वाले का पुरज़ोर विरोध करने का उसमें सामर्थ्य आए। समाज की इस निम्न सोच में बदलाव ही असल “नारी सशक्तिकरण ” है…।

महिला सशक्तिकरण वास्तव में संवेदनशील और संजीदा मुद्दा है। प्रसिद्ध फ़िल्म अभिनेत्री दीपिका पादुकोण का एक इंटरव्यू मुझे याद आरहा है जिसमें अंग्रेजी में दीपिका बोल रही है कि मेरा लाइफ पार्टनर मुझे नियंत्रित नहीं कर सकता कि मैं रात कहाँ और किसके साथ बिताकर आ रही हूँ। देश भर की लड़कियों को यह जुमला बहुत भाया। क्या इन लड़कियों ने कभी नहीं सोचा कि दीपिका ने रनबीर कपूर को सिर्फ इसलिए छोड़ा क्योकि कैटरीना कैफ के साथ उनकी कोज़ी तस्वीरें सामने आयी। प्रेम एकाधिकार माँगता है। जीवनसाथी द्वारा आपके प्रेम पर एकाधिकार की माँग जायज़ है। इसमें कैसा नारी शोषण… ?? महिलाएँ इतनी “भटकी मुहिम” और “भ्रमित आंदोलनों” का हिस्सा कैसे बन रही है… ?? क्या नकारात्मकता का आकर्षण उन्हें लुभा रहा है…??

एक स्त्री होने के नाते आप संघर्ष करिए अपने परिवार के भीतर शिक्षा के अधिकार व अपने महिला स्वाभिमान को अक्षुण्ण रखने, अपनी आर्थिक आजादी के लिए, अपनी सामाजिक सुरक्षा के लिए। घर की चारदीवारी के बाहर निकल कर लम्बा संघर्ष करिए अपनी सरकार से सुरक्षित सड़कों के लिए। मुँहतोड़ जवाब दीजिये उस समाज को जो बलात्कार पीड़िता या यौन शोषण के खिलाफ आवाज़ उठाने वाली को हेय दृष्टि से देखता है। किसी भेड़चाल में शामिल होने से पहले विचार करिए कि आपसे पूछा गया हर सवाल, संशय या आपत्ति आपके नारीत्व पर प्रहार नहीं है। संतुलित बुद्धि से तौलने का नजरिया विकसित करिए। अपने लक्ष्य स्वयं निर्धारित करिये, अभद्रता और शालीनता, बेहूदगी और गरिमा, फूहड़ता और शिष्टता के बीच के फर्क को अंतरात्मा से महसूस करिए और स्त्री-गरिमा एवं महिला सशक्तिकरण का सार्थक उत्सव मनाइए…।

वास्तव नारी को किसी सशक्तिकरण की आवश्यकता ही नहीं है, एक नारी ईश्वर पर भी भारी है इसकी सार्थकता को स्पष्ट करते हुए दो पंक्तियां लिख रही हूँ…

“माना कि पुरुष बलशाली है, पर रण जीतती हमेशा नारी है,

कान्हा के छप्पन भोगों पे बस एक तुलसी की पत्ति भारी है…। “

©रीमा मिश्रा, आसनसोल (पश्चिम बंगाल)

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