लेखक की कलम से

काम की तलाश ..

एक मजदूर काम की तलाश में,

घर से निकलता है,

आँखों में सपने लेकर,

अपनों को छोड़ कर,

उनकी यादों के सहारे,

बड़े शहरों में जाता है।

ऊँची -ऊँची दीवारें,

चमकती सड़कों पर,

धूल से सने पैर पड़ते हैं।

चेहरे की रोशनी में

खुद को देखता है।

आत्मा उदास होता है,

वो सपने गाँव की यादें,

हमेशा रुलाती हैं।

लेकिन दिल पे पत्थर रख कर,

मजदूरी को धर्म समझ कर,

काम की तलाश में,

दिन रात घूमता रहता है।

मजदूरी का कोई धर्म नहीं होता,

मजहब नहीं होता,

इनसान सा व्यहार करता,

हर बात समझ में आता है।

न जाने क्यों बड़े लोग करते है नफरत,

किस ख़्वाब में जीते है लोग,

छोटे हो या हो बड़े,

हर लोग मजदूरी के कतार मे रहते है खड़े।

©अजय प्रताप तिवारी चंचल, इलाहाबाद

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