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शकुन्त माथुर के आज जन्मदिन पर उनकी यादें ताजा कर रहीं बेटी डॉ. बीना बंसल से दिल्ली बुलेटिन के लिए डा. विभा सिंह की खास बातचीत

नई दिल्ली।अज्ञेय द्वारा सम्पादित ‘दूसरा सप्तक’ से साहित्यिक जगत में प्रवेश करने वाली शकुन्त माथुर का 24 फरवरी, को जन्मदिन है। उनका विवाह गिरिजा कुमार माथुर जी से हुआ। शकुन्त जी और गिरिजा कुमार माथुर ऐसे अकेले दंपत्ति है, जो ‘सप्तक’ परम्परा में शामिल हैं। उनके व्यक्तिगत और साहित्यिक जीवन से जुड़ी बातों, विचारों और एक स्त्री के रूप में उनकी बेटी लेडी श्रीराम कालेज की पूर्व लेक्चरर डा बीना बंसल उन्हें कैसे देखती-परखती, कैसे याद करती है? इन्हीं कुछ प्रश्नों का उत्तर, जिज्ञासाओं का समाधान पाने का प्रयास करती हुई- दिल्ली बुलेटिन के लिए डा. विभा सिंह।

विभा- शकुन्त जी के आरंभिक जीवन के बारे में कुछ बताइये- उनका जन्म कहाँ हुआ? शिक्षा कहाँ हुई?

डा बीना बंसल – माँ का जन्म पुरानी दिल्ली के चिरेख़ाना में 24 फरवरी, 1920 में हुआ था। मेरे नाना सरकारी नौकरी करते थे और बाद में वे दिल्ली के तिमारपुर के सरकारी कॉलोनी में रहने लगे थे। उनकी दसवीं तक की शिक्षा तो दिल्ली के इन्द्रप्रस्थ स्कूल से हुई थी। इसके बाद उन्होंने प्रभाकर इलाहाबाद से किया था।

विभा- उनका विवाह कब हुआ था?

डा बीना बंसल – माँ का विवाह 1940 में हुआ था। उनके विवाह का बड़ा ही रोचक प्रसंग तुम्हें बताती हूँ। मेरे नाना उस समय दिल्ली के संभ्रान्त परिवार में से थे। उनकी सबसे बड़ी संतान होने के कारण नाना माँ का विवाह किसी नामी-गिरामी जस्टिस के परिवार में करना चाहते थे। जबकि मेरी माँ ने मेरे पिता गिरिजा कुमार माथुर जी को किसी कवि सम्मेलन में कविता-पाठ करते हुए सुना-देखा था और ये अनशन करके बैठ गई कि मुझे तो उन्हीं से विवाह करना है।

डा. विभा सिंह के साथ बीना बंसल.

विभा- फिर, क्या आसानी से उनका विवाह हो गया?

डा. बीना बंसल – हो तो गया। पर थोड़ी कठिनाई तो आई क्योंकि गिरिजा कुमार माथुर जी का परिवार एक सुदुर गाँव से जुड़ा था। इस कारण नाना-नानी थोड़े आशंकित थे कि उनकी बेटी ने कभी गाँव देखा नहीं वहाँ कैसे रह पायेगी ये। उस समय दिल्ली के जो माथुर हुआ करते थे, वो बड़े आधुनिक और आजाद ख्याल के थे। परदा प्रथा बगैरह नहीं था हमारे यहाँ। तभी तो उस समय भी माँ पढ़ पाईं। और माथुरों की लड़कियाँ बड़ी सुन्दर भी हुआ करती थी, माँ बहुत सुन्दर थीं।

विभा- तो कैसे संपन्न् हुआ उनका विवाह?

डा बीना बंसल – माँ अनशन पर बैठ गई कि मुझे तो उन्हीं से विवाह करना है। पिताजी उस समय जैसे युवा कवि दिखते हैं, सुन्दर दिखते थे और माँ ने उन्हें केवल कविता-पाठ करते सुना थोड़े ही था, पिताजी को देखा भी था। अंत में नाना को मानना पड़ा। पर, विभा तुम्हें बताऊँ माँ ने निभाया भी बहुत अच्छे से। मेरी दादी जब बीमार थी और पलंग से उठ नहीं पाती थी तो मैने माँ को उनकी सेवा करते देखा और गाँव के रीति-रिवाजों में ढलते देखा है।

विभा- तो क्या कविता लिखने का शौक उन्हें विवाह के बाद हुआ?

डा बीना बंसल – नहीं, नहीं, तुकबन्दी और गाने लिखने का शौक तो उन्हें बचपन से ही था। हाँ, विवाह के पश्चात ही इन्होंने मध्यभारत के गाँवों और जंगलों को देखा, जिसकी छाप इनकी कविताओं में दिखाई पड़ती है। पर अपनी कवितओं को वे एकदम स्वान्तः सुखाय ही मानती थीं- अपने ही आप को संतुष्ट करने के लिए की गयी रचनाएँ। उन्होंने कभी सोचा ही नहीं कि वे एक कवयित्री है और उनकी रचनाएँ औरों के लिए भी कुछ महत्त्व रख सकती है। साथ ही गिरिजा कुमार माथुर जैसे कवि की पत्नी होने के कारण एक मानसिक दवाब भी वे महसूस करती होंगी। जैसा कि उन्होंने कहा भी है न ‘जब भी मैं लिखती इनकी कोई न कोई रचना मेरे सामने आकर खड़ी हो जाती और मेरी कविता शर्मिंदा हो जाती। परन्तु पिताजी के प्रतिष्ठित साहित्यिक मित्रों ने यहाँ मैं अज्ञेय जी का नाम लेना चाहुँगी – जब शकुन्त जी की रचनाएँ देखीं, सराहा और उन्होंने प्रकाशित करवाया तब उन्हें भी अनुभव हुआ कि स्वान्तः सुखाय काव्य की सार्थकता तभी है जब वह प्रत्येक को स्वान्तः सुखाय लगे और बहुजन हिताय हो जाय।’

विभा- उनकी साहित्यिक यात्रा के बारे कुछ बताइये?

डा. बीना बंसल- अपने आप को कवयित्री और अपनी रचनाओं को काव्य मानने की गलती बहुत समय तक नहीं की उन्होंने; हँसते हुए। हालाँकि बचपन से ही तुकबंदी का शौक था उन्हें। आरंभिक कुछ रचनाएँ साप्ताहिक ‘अर्जुन’ तथा अन्य छोटे-मोटे पत्रों में प्रकाशित हुई थी। परन्तु शादी के बाद पारिवारिक व्यस्तता के बीच जो कविताएँ उन्होंने लिखी उन्हें अज्ञेय जी जब एक बार घर पर आए और देखा तो पुलिंदा ही उठा कर ले गए और उसे ‘दूसरा सप्तक’ जैसे काव्य-संग्रह में स्थान दिया। अज्ञेय जी जैसे व्यक्तित्व से प्रशंसा पाना, तुम सोच सकती हो कि उनके लिए कितनी बड़ी बात रही होगी। बाद में हिन्दी की सभी श्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिकाओं में उनकी कविताएँ प्रकाशित होती रहीं। उनकी कविताओं का संग्रह-चाँदनी चूनर ;1961द्ध अभी और कुछ ;1966द्ध, ‘लहर नहीं टूटेगी’ ;1990द्ध प्रकाशित कविता-संग्रह है। उनकी कविताओं के अंग्रेजी, रूसी, जर्मन पोलिश तथा अनेक भारतीय भाषाओं में अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं। पहले ही काव्य-संग्रह ‘चाँदनी चूनर की भूमिका पंत जी ने लिखी थी।

शकुन्त माथुर जी अपने परिवार के बच्चों के साथ.

विभा-एक स्त्री के रूप में आप उन्हें कैसे देखती है?

डा बीना बंसल- कर्तव्यनिष्ठ! आलस से दूर, अपना काम स्वयं करने वाली। दूसरों से काम कराना उन्हें बिल्कुल पंसद नहीं था। अंतिम दिनों तक अपना काम वे स्वयं करती थी। प्रबंधन उनका देखने लायक था। चाहे वह खाना बनाना हो, घर को सजाने-सँवारने का हो या बागवानी का हो। ढेरों फूलों और सब्जियों से भरे आँगन का वे अपने हाथों से देखभाल करती थी। त्योहारों पर विशेषतः होली में गुझिया, पापड़ी, मालपुए आदि बनाना- सारे लोगों को बुलाकर खिलाना, गाना- बजाना वो दिन कितने अच्छे थे। अपना सबकुछ छोड़कर पति, बच्चों को पीछे जैसे सूरज पृथ्वी के साथ घूमता है, वे घूमती थीं। अपने हाथों से बच्चों को खिलाना, अपने हाथ से बुने स्वेटर ही पहचाना, मुझे याद नहीं कभी बाजार से खरीदा स्वेटर हम भाई-बहनों ने पहना था। चादर-गिलाफ में कढाई करना, क्या नहीं था जो वो करती न हों। विविधता उनके कामों में था। चाहे वह घर हो या लेखन। उनके व्यक्तित्व से प्रभावित होकर एक बार विजेन्द्र स्नातक जी ने कहीं कहा था ;याद नहीं कहाँ तुम देख लेनाद्ध गिरिजा कुमार माथुर जैसे वटवृक्ष के नीचे भी शकुन्त माथुर पनपती रहीं।’

विभा-एक माँ के रूप में कैसे याद आती है? कैसे याद करना चाहेगी आप?

डा. बीना बंसल – वो सामाजिक मर्यादावादी थीं। बच्चे कोई ऐसा काम न करे जिससे हमारे संस्कारों को चोट लगे। साथ ही इतनी आधुनिक थीं कि शिक्षा और कपड़े पहनने की दृष्टि से कभी रोक-टोक नहीं किया। पूरी आजादी दी थी उन्होंने अपने बच्चों को। अपने बच्चों में उन्हें विश्वास था, हाँ अनुशासन प्रिय थी वे – जिंदगी को एक अनुशासन में बाँधे रखना उन्हें पसंद था। जीवन जीने का सलीका और तरीका उन्हें पंसद था, अस्त-व्यस्तता उन्हें पसंद नहीं थी। सुचारू रूप से काम करना उनकी दिनदर्या में शामिल था। अपनी परम्पराओं में उन्हें विश्वास था, भारतीय संस्कारों में विश्वास था। जैसे दामाद के साथ थोड़ी-सी औपचारिकता वे रखती थी। पूजा-पाठ उतना नहीं करते हुए भी ईश्वर में उन्हें आस्था थी, कर्मकाण्ड में विश्वास नहीं थी। हाँ, सच के प्रति उनका अगाध् प्रेम था। मैने कभी उन्हें झूठ बोलते हुए नहीं सुना। बहुत सोशल नहीं थीं, वे जल्दी-घुलती मिलती नहीं थीं। जबकि इसके विपरीत पिताजी थे, वे पान-सब्जीवाले से भी घंटों बतियाते थे।

विभा- अपने समय के बारे में कभी उन्होंने कुछ बताया? मसलन जब वे युवा होगी तो हम स्वतंत्र नहीं थे।

डा. बीना बंसल- अपने जीवन में स्वाधीनता की लड़ाई को उन्होंने निकट से देखा था। अपने दादी के साथ सत्याग्रह आन्दोलन में भाग लिया। गाँधी जी के आह्वान पे अपने आभूषण उतार कर दिये। वहीं से उनके मन में देशभक्ति की भावना जगी, जिसकी प्रेरणा उनकी दादी रहीं। यही कारण है कि स्वान्तः सुखाय रचनाएँ बाद में सामाजिक प्रक्रिया के रूप में मुखरित हो उठी। हालाँकि जितना सोचा उतना कर नहीं पायी।

विभा- उनकी पसंद की कोई कविता, जो आपको याद हो?

डा बीना बंसल- कई कविताएँ हैं। उनके घर आँगन के प्रतिदिन के अनुभवों से जुड़ी कविताओं -‘तुम सुंदर हो, घर सुन्दर हो’, ‘इंतजार का नया ढंग’, ‘एक अनुभूति, सूरज मेरे कमरे में, के अलावा- नारी का संदर्भ’, ‘काँच, ‘सिर्फ तराशती रही’, ‘खण्डो की सार्थकता’, ‘रूप’आदि अनेक ऐसी कविताएँ है जो सामाजिक यथार्थ को, नारी मन के संघर्ष की दर्शाती हैं।

विभा- …… जो आपको याद हो?

डा बीना बंसल – ‘हरा-भरा / घना पेड़ / पीछे / चाँदनी का कुमुद-तन / हजार आँखे / ;रूपद्ध ‘‘मैं इतनी कमजोर क्यों हूँ / जो अपने आप से बार-बार हार जाती हूँ। … क्यों सोचती हूँ। कट जाती है जिन्दगी / तरसते-तरसते। क्यों नहीं सोचती / अभाव जुड़ जाता है / किसी धर में / बरसते बरसते।

विभा- बचपन की कुछ यादें, कुछ रोचक संस्मरण जो माँ से जुड़ी हों?

डा. बीना बंसल – कई बातें है जो मुझे आज भी अच्छी तरह से याद है। बचपन में लगभग पाँच-छह वर्ष की थी मैं। लखनऊ में महिला विद्यापीठ में पढ़ने जाने के लिए सुबह चार बजे ही उठाती थी वे और मैं उठकर आते हुए सीढ़ियों पर ही सो जाया करती थी। वो आती देखती कहतीं अरे बीना फिर सो गई उठ जा….. कई ऐसी बातें है। उस जमाने में हमें कपड़े से ढके ढेले वाले स्कूल ले जोने के लिए सुबह पाँच – साढे पाँच ही आ जाते थे। हाँ, लखनऊ में बंदर बहुत थे। एक बार माँ खाना बनाकर नहाने गई और मुझे कहा देखना कही बंदर न ले जाए और सचमुच में बंदर आ गए और घी से चुपड़ी रोटियों का डब्बा उठाकर भाग गए। उस दिन बहुत डाँट पड़ी थी मुझे…।

विभा-  भाई- बहन के साथ जुड़ी यादें…?

डा. बीना बंसल – एक बार बंदर हम भाई-बहनों का चप्पल उठाकर छत पर भाग गया तो माँ ने हमें छत की दूसरी तरफ भेजकर बचे चप्पलों को फेंकने को कहा ताकि बंदर भी नकल कर चप्पलें नीचे फेंक दे। एक बार बड़े भाई जब छोटे थे तो छत की मुंडेर पर चढ़कर बैठ गए। उन्हें उतारने के लिए माँ ने आवाज न देकर धीरे- से ऊपर चढ़कर पीछे से उन्हें अंक में भर लिया कि आवाज सुनकर कहीं हड़बड़ाकर गिर न जाए। प्रत्युत्पन्न मति थी उनकी। तत्पर बुद्धि बहुत थी उनमें। जब वे युवा थी तब उनके भाई-बहन उन्हें ‘शेर’ के नाम से पुकारते थे इतनी निडर, निर्भीक थी वे। कभी विचलित होते उन्हें नहीं देखा। होती भी होगी तो कभी हमारे सामने प्रकट नहीं किया। क्या-क्या बताऊँ जीवन ही माँ की यादों से भरा हुआ होता है।

विभा- उनके सम्पूर्ण व्यक्तित्व को आप कैसे देखती है?

डा. बीना बंसल – वे एक कवयित्री थी, ममतामयी माँ थी, कर्तव्यनिष्ठ पत्नी थीं परन्तु नारी का सुख केवल उसकी घर-गृहस्थी तक ही सीमित है, ऐसा वे नहीं मानती थीं। एक इंसान के रूप में व्यक्ति का मानसिक विकास उसकी संतुष्टि, जिस भी कार्य में वह पाता है, उसकी तरफदार थीं वे।

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