स्वप्न्न …
एक स्वप्न जो देखा है,
बस साकार ही उसे करना है,
बना प्रेम का ही जहाँ,
बस प्रेम ही प्रेम भरना है,
कर प्रारंभ खुद से ही,
बस मैं तो चल दी हूँ,
सींचने हर वृक्ष प्रेम से,
बस कुछ उड़ चल हूँ,
ले प्रियतम को मन मंदिर में,
बस प्यारा विश्व बनाने को,
प्रेम से ही बस वसुधा का,
कण कण मैं सजाने को,
वसुधैव कुटुम्बकम का एक स्वप्न लिए,
बस कुछ नित गढ़ती हूँ,
गीतों में अपने तो बस,
प्रेम ही प्रेम लिखती हूँ,
हो संस्कारो की नींव जहाँ,
माँ के ममत्व का आँचल हो,
बचपन को सींचता जहाँ,
हर एक ही आँगन हो,
व्यक्तिव्य गढ़ते हो जहाँ,
हर परिवार की क्यारी में,
नर नारी समान हो जहाँ,
जीवन की फुलवारी में,
नारी हो जहाँ सुरक्षित,
हर घर के आंगन में,
पुनः पाये वह सम्मान,
जन जन की ही दृष्टि में,
पुनः बने देश ही गौरव,
हम सबके मन मंदिर में,
साकार हो बस आप ये सपना,
खुशियो से भरा हर घर हो अपना,
सम्पूर्ण धरा ही अपना हो,
प्रेम की भाषा हो,
प्रेम सिंचित बस वसुधा हो,
इस प्यारे से स्वप्न्न को
करने साकार उमड़ा बस जन धन सारा हो,
प्रेम की हर बगिया में,
बस उपजा प्रेम ही सारा हो।।
©अरुणिमा बहादुर खरे, प्रयागराज, यूपी