लेखक की कलम से
बंदी जीवन …
बंदी जीवन चारदीवारी
देखो खुद को देवे गारी
कहां से देखो बंधन आया
तीन माह से घर बैठाया ।।
नहीं किंचित अनुमान भला
जोर मेरा एक न चला
बंदी बन मैं घर बैठी
कविता के संग मै ऐंठी
आसान नहीं होना नारी
देखो खुद को देवे गारी ।।
पहले सपने तिरते नैना
अब देखो कोई चाह बची ना
हर पल सांसें उपर नीचे
कोरोना दे नित नए तमाचे
डर लगता कल किसकी बारी
देखो खुद को देवे गारी ।।
बंदी जीवन चारदीवारी ।।
©डॉ. सुनीता मिश्रा, बिलासपुर, छत्तीसगढ़