लेखक की कलम से

सहनशीलता और जमीर की जंग …

 

सहनशीलता एक शब्द नही अपने आप में एहसास है यही एहसास मानव को मानव बनाता है । अगर सच मे सहनशीलता मानव से निकाल लिया जाय तो मानव और दानव में अंतर कर पाना मुश्किल होगा।

किसी विद्वान ने कहा है मनव में केवल एक गुण सहनशक्ति आ जाये तो मानव का आधा विजय पक्का माना जाय।

इतिहास पुरुष या दिव्य महिला का एकल और अचूक अस्त्र सहनशीलता हीं है ।इसको कुछ उदाहरणों से समझा जा सकता है ।

सीता का उस राक्षसो के बीच अपने आप को जिंदा रखना ,देवी उर्मिला का राजमहल में रहकर तपस्वनी बना रहना , राम का राजपुत्र होकर भी बनवास काटना , बंदर भालू के सेना के साथ उस अजेय पर जीत हासिल करना ही नर से नारायण बनाता है।

 

वहीं जमीर से समझौता करना मानव को पंगु ,निष्क्रिय और कर्मण्य बनाने में सहायक होता है।

ज़मीर जिंदा तो मानव जिंदा, जमीर मरा मानव मरा।

सहनशीलता एक हद तक तो ठीक लिकिन अगर ये चरम पर पहुँचे तो खतरनाक।

 

इसको भी उदाहरणों से समझा जा सकता है

पुनः राम की ही बात करें समुद्र देव का पहले अनुनय विनय फिर एक तीर से सूखाने की बात सहनशीलता सहित धैर्य परीक्षण का सर्वोत्तम उदाहरण है।

 

जमीर को जिंदा रखकर मानव का सहिष्णु होना सहनशीलता का सर्वोत्तम साधन।

 

 

©कमलेश झा, फरीदाबाद                                                              

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