लेखक की कलम से

अब चले हज पर आडवाणीजी …

राम जन्मभूमि मुक्ति संग्राम के लिए गठित कारसेवकों की सेना के सिपाहसालारे-आजम लालचन्द किशिनचन्द आडवाणी ने बाबरी ढांचे के ध्वंस करने पर चले मुकदमें में अपना बयान लखनऊ के विशेष सीबीआई अदालत में (24 जुलाई 2020) दर्ज करा दिया। आडवाणी ने जज को बताया कि कांग्रेस सरकार ने उन्हें फंसाया है। गवाह झूठे हैं। कैसेट से छेड़छाड़ हुई है। फोटोग्राफ फर्जी हैं। पूरा मामला राजनीति से प्रेरित है। आडवाणी का दावा था कि वे एकदम निर्दोष हैं। (25 जुलाई 2020, इकनोमिक टाइम्स).

अर्थात यह सारा रूपक, बल्कि प्रहसन, यही एहसास कराता है कि बधिक अब निरामिष हो गया है। तो प्रश्न है कि फिर उन्तीस वर्षों से “मंदिर वहीँ बनायेंगे” का मन्त्र क्यों वे अलाप रहे थे? भाजपा चुनाव घोषणापत्र में क्या वोटरों को रामलला के नाम पर झांसा दिया जा रहा था? अगर ढांचा नेस्तनाबूद नहीं करना था तो फिर 1991 में सोमनाथ से चलकर सरयू तट पर कारसेवकों का बलिदान क्यों कराया?

दिसंबर 6, 1992, को ढांचा दरकाते हुए भाजपायी सदस्यों से आडवाणी स्पष्ट कह देते कि उनका लक्ष्य अलग है। हालाँकि उकसाने और करने वाले में कानूनन अंतर कम ही होता है। अट्ठाईस वर्षों बाद अब बयान आया कि आडवाणी का ढांचे से कोई मतलब नहीं था। चाहे वह रहे अथवा गिरे।

अर्थात, उजबेकी डाकू जहीरुद्दीन बाबर द्वारा हिन्दुओं के पवित्रतम स्थान को भ्रष्ट करने के बाद उसको सुधारने में आखिर ऐसी हिचकिचाहट क्यों?

हिन्दू-हितैषी भाजपा में जनआस्था का यही खास आधार रहा है।

आखिर आडवाणी का ऐसा ह्रदय परिवर्तन क्यों हुआ ?

क्या ऐसी आशंका थी कि सजा हो गई तो बाकी वर्ष सलाखों के पीछे बीतेंगे?

कानपुर के भाजपा कार्यकर्ता से राष्ट्रपति बने रामनाथ कोविंद क्या अपने पूर्व अध्यक्ष की सजा माफ़ नहीं करते ?

मुकदमा वापस नहीं लेते ?

मेरी निजी दृष्टि में मोदी अथवा योगी राज में भाजपा के संस्थापक को जेल में रखने की हिम्मत कोई भी नहीं कर सकता है।

आडवाणी ने बहुसंख्यक धर्मावलम्बियों के लिए जनविद्रोह कराया था। वोट का लाभ भी मिला। लोकसभा में पहले दो सीटें थीं, कई गुना बढीं। सत्ता पायी। अयोध्या संघर्ष की यही तार्किक रणनीति रही।

हालाँकि पुलिसिया जुल्म से घायल इन कारसेवकों से कहीं बड़ा लाभांश तो सांसद अटल बिहारी वाजपेयी ने पाया। अयोध्या में कारसेवा करने दिल्ली से लखनऊ जहाज से वे आये। लखनऊ के कलक्टर अशोक प्रियदर्शी ने बातचीत कर ली। उन्हें वापस जहाज में बैठा दिया। दिल्ली पहुँचा दिया। अटल अमौसी स्थल पर रामलला के लिए न धरने पर बैठे, न नारेबाजी की, न गिरफ़्तारी दी। नतीजन अटल पर कोई आरोप या मुक़दमा नहीं चला। न चार्जशीट, न कोर्ट में बयान। मगर संसद में बहुमत अयोध्या के नाम पर पा लिया।

अलबत्ता भाजपा नेतृत्व में लोध राजपूत कल्याण सिंह सबसे निष्ठावान, ईमानदार, नैतिक और बहादुर निकले। ढांचा टूटने में उनका सक्रिय योगदान रहा। इसके लिए सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें तिहाड़ जेल में भी बंद रखा। उनकी सरकार भी राज्यपाल बी. सत्यपाल रेड्डी के द्वारा कांग्रेसी प्रधनामंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव सरकार ने बर्खास्त करा दी। वस्तुतः शहीद तो कल्याण सिंह हुए थे, न कि बाबरी ढांचा।

जब जब ऐसे राष्ट्रवादी अस्तित्व तथा आस्था के प्रश्न गत सदी के इतिहास में उठे तो आरोपियों ने सदैव सत्य का सहारा लिया। सत्ता के दुराग्रह से टक्कर ली। कारागार यातना भुगती। फंदे पर झूले। इतिहास में वे सारे आरोपी, विप्लवी जननायक बनकर उभरे।

ऐसी ही राजद्रोह की वारदातों से जुड़ी घटनाओं और उसके महानायकों की तुलना आडवाणी से करना सम्यक, समीचीन और आवश्यक है।

मसलन गत सदी के महानतम बागियों का उल्लेख हो।

प्रथम, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक। उनपर आरोप था कि दैनिक “केसरी” में उनके लिखे उत्तेजनात्मक सम्पादकीयों ने ब्रिटिश सरकार के प्रति विद्वेष, घृणा और विद्रोह पनपाया। तभी बंगाल के उद्वेलित क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों की राजनीतिक हत्याएं की। तिलक पर मुबंई में राजद्रोह का मुकदमा (1908) चला। लोकमान्य की राष्ट्र के नाम न्यायालय से उद्घोषणा थी कि : “स्वतंत्रता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है। मैं इसे लेकर रहूँगा।” न्यायमूर्ति दिनशा दावर ने तिलक को छः वर्ष की सजा दी। बर्मा के मांडले जेल में कैद रखा गया। तिलक की साफ दृष्टि थी कि भारतीय हर संघर्ष के लिए स्वतंत्र हैं।

फिर आये बापू, महात्मा गाँधी। उनपर भी वही आरोप (मार्च, 1922) था कि उन्होंने अपनी लेखनी से राजद्रोह भड़काया। गाँधी का बयान सीधा–सादा स्पष्ट था। उन्होंने न्यायालय से कहा, “बर्तानवी सरकार को उखाड़ फेंकना हर भारतीय का राष्ट्रधर्म है। आप न्यायमूर्ति ब्रूम्स्फील्ड यदि मुझसे सहमत हैं, तो अपने पद से त्यागपत्र दे दें। अन्यथा मुझे कठोर दण्ड दें।” ब्रिटिश जज ने बापू को छः साल की सजा दी।

अब बारी थी शहीदे आजम भगत सिंह और उनके साथियों की। उन्होंने ऐलान किया कि संसद भवन में बम फोड़ने का मकसद था बहरे देश को जगाना। कोई शाब्दिक लुकाछिपी नहीं। वे सहर्ष शहीद हो गए।

   ©के. विक्रम राव, नई दिल्ली   

अगला शेष भाग कल 30 जुलाई को … 

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