लेखक की कलम से

नहीं संभले तो टूटता रहेगा पहाड़ों का सब्र, पर्यावरण संतुलन ही बचाव का एकमात्र उपाय हो सकता है …

अभी कुछ दिनों पहले उत्तराखंड एक नई त्रासदी से गुजरा।जन जीवन ग्लोबल वार्मिंग के कारण बढ़ते हुए तापमान को रोकना अब आसान नहीं है,टूरिज्म के तौर पर लोगों की जो चहल पहल बढ़ रही है,उस पर भी थोड़ा लगाम लगाने की जरूरत है।इसके साथ ही अगर सच मे हम अपनी बर्फीले पहाड़ों को सुरक्षित रखना चाहते हैं तो हमें सनातन ज्ञान पद्धति में जो हिमखंडों को सुरक्षित रखने के उपाय दिए गए हैं ,उन पर अमल करना होगा।

केदारनाथ त्रासदी के साढ़े सात वर्ष बाद उत्तराखंड के चमोली में पुनः तबाही का मंज़र सामने आया जो दिखाता है कि हम ऐसी घटनाओं से सबक नहीं ले रहे हैं।सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आधुनिक विकास के साथ साथ पर्यावरण संतुलन भी उतना ही जरूरी है।

सामान्य रूप से बर्फ की शिलाएं ठंड के मौसम में नहीं टूटती इसलिए उत्तराखंड में आई विपत्ति को प्राकृतिक  नहीं मानना चाहिए,अपितु मानव जनित आपदा समझना जरूरी है।हालांकि आसपास के रहवासियों को पहले से ही अप्रिय हादसे की आशंका हो रही थी, इसी वजह से 2019 में नंदा देवी संरक्षित क्षेत्र में चल रहे बांध निर्माण कार्य को रोकने के लिए अदालत के दरवाजे पर भी दस्तक दी थी। किन्तु उस मामले को भी कुछ विशेष उपाय ना हो पाया।

खैर ,यदि धरती पर गर्मी इसी तरह दिन ब दिन बढ़ती रही तथा ग्लेशियर पिघलने के साथ ही टूटना जारी रहे तो इनका सीधा प्रभाव समुद्र का जलस्तर बढ़ने एवम नदियों के अस्तित्व पर पड़ना निश्चित है।गरमाती जमीन और हिमखण्डों के टूटने का सिलसिला जारी रहा तो समुद्र का जलस्तर बढ़ता ही जाएगा,इससे बहुत से लघु-द्वीप एवम समुद्रतटीय शहर जलमग्न होने लगेंगे। हालांकि वैज्ञानिक अभी भी यह निश्चित नहीं कर पाए हैं कि इस तरह की घटनाओं को प्राकृतिक माना जाए अथवा सिर्फ जलवायु परिवर्तन इसके लिए जिम्मेदार है?

हजारों वर्षों से प्राकृतिक रूप से हिमखण्ड पिघलकर नदियों की जलधारा में मिलते रहे हैं।परन्तु भूमण्डली करण के पश्चात प्राकृतिक उपहारों के दोहन पर आधारित जो इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट हुआ है, उससे निकलने वाली कॉर्बन ने इनके पिघलने की तीव्रता को और भी ज्यादा बढ़ा दिया है।

भारत में हिमालय से टोटल 9,975 हिमखण्ड हैं। बात की जाए उत्तराखंड की तो इसके क्षेत्र में 900 हिमखंड आते हैं।बताया जाता है कि इन हिमखण्डों से ही अधिकतर नदियां निकली हैं,जो देश की 40 परसेंट आबादी को सिंचाई ,पेयजल व रोजगार के बहुत से संसाधन उपलब्ध कराती हैं।पर हिमखण्डों के पिघलने तथा टूटने की कड़ी यूंही जारी रही तो हमारे पास कोई उचित उपाय नहीं है कि वह इन नदियों से जीवन-यापन कर रही करोड़ों की आबादी को रोजगार  तथा आजीविका के बेहतर विकल्प संसाधन दे सके।

हमें हिमखंडों को टूटने या पिघलने से बचाने के लिए दिन ब दिन बढ़ती जा रही औद्योगिक गतिविधियों को भी एक कुछ समय के लिए विराम देना चाहिए।हिमखंडों के टूटने की घटनाओं को इतना सामान्यता से लेना आने वाले समय में और भी ज्यादा गंभीर परिणामों को बड़ा सकता है,पहाड़ों को तोड़ तोड़ कर बांध तथा सड़कों के चौड़ीकरण की बढ़ती प्रक्रिया को संतुलित होकर अंजाम देना जरूरी है।वरना हिमखंडों तथा पहाड़ों का सब्र ऐसे ही टूट टूट कर अप्रिय घटनाओं को अंजाम देता रहेगा।

 

©परिधि रघुवंशी, मुंबई

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