लखनऊ/उत्तरप्रदेश

मैं बेबस और परेशान हूँ…

 

लोग कहते हैं कि,
मैं इस धरती का भगवान हूँ।
आके देखो मुझे यहाँ,
मैं बेबस,और परेशान हूँ।।

पानी के साथ मैंने उसे,
खून पसीने से सींचा था।
गृहस्थी की गाड़ी को,
उनसे जोड़कर खींचा था।।
पर क्या होगा भविष्य का,यह सोचकर हैरान हूँ-

खेतों में पड़े सड़ रहे हैं,
देखो जीवनदायिनी धान।
जिनके सहारे जी रहे हैं,
घर के बच्चे,बूढ़े जवान।।
आज उसी को समेट-समेट,मैं हो रहा परेशान हूँ-

सावन में एक बूंद को तरसे,
अब देखो बेमौसम बरसे।
अब बरसे तो ऐसे बरसे,
तड़प तड़पकर मन है तरसे।।
क्या करूँ क्या न करूँ,मैं सचमुच में हलाकान हूँ-

धान की बाली खेत पड़े हैं,
कितने बारदानों में सड़े हैं।
मंडी अब तक खुली नहीं है,
धान देखो खुले में पड़े हैं।।
व्यापारी गुलछर्रे उड़ाए,और यहाँ मैं मृत समान हूँ-

हम पर ही क्यूँ जुल्म होता है,
होती है व्यर्थ की राजनीति।
उस पर भी मन न भरता है,
कहर ढाती है क्यूँ प्रकृति।।
किस,किससे,कितना लडूं?मैं मासूम किसान हूँ-

 

©श्रवण कुमार साहू, राजिम, गरियाबंद (छग)             

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