लेखक की कलम से

कैसी यह घड़ी …

कैसी यह विपदा

कैसी यह घड़ी

जन्म ले रहा बच्चा

और मां ने आंखें बंद कर ली

मां के एहसास से दूर रहा

मां के दुलार से महरूम रहा

हां, कैसी आ गई यह घड़ी।

 

पिता, जो घर के वट वृक्ष थे

परिवार का आधार थे

बीच मझधार में छोड़ गए

जीवन के संग्राम में हार गए

न देखी बेटी की विदाई

न बेटे का परिवार बनते देखा

हां, कैसी आ गई यह घड़ी।

 

घर के जवान बेटे ने

दम तोड़ दिया

जिस पिता को कांधे लेना था

उसे रोता ही छोड़ गया

बच्चे राह देख रहे पिता का

घर में बीबी और मां का कलेजा फट रहा

हां, कैसी आ गई यह घड़ी।

 

मां की बात क्या कहे

वह तो जननी है

महामारी की पीड़ा में

सांसों ने साथ न दिया

पति, बच्चे और घरवाले सब

सलामत रहे दुआ करते हुए सांसे बंद हुई

हां, कैसी आ गई यह घड़ी।

 

ओह! यकीन न आता हमें

कैसे विपदा से मानव बचे

घड़ी भर की देरी से घर लूट जाए

महामारी से अब केवल परमात्मा सबको बचाए

आंखों में आसूं अब कितनों की देखोगे

विपदा में है सृष्टि तुम्हारी

अब तुम ही इसे संभालोगे।।

 

©डॉ. जानकी झा, कटक, ओडिशा                                  

 

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