बिलासपुर। सालों पहले पालेश्वर प्रसाद शर्मा ने कहा था ”1 मई मजदूर दिवस है, मेरा जन्मदिन भी है क्योंकि मैं भी तो मजदूर ही हूं कलम का मजदूर .”मुक्त हंसी “! जांजगीर (छत्तीसगढ़) के सरयूपारीण ब्राम्हण परिवार में 1 मई सन 1928 को स्व. श्यामलाल दुबे को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई थी जिसने साहित्य को अध्ययन, अध्यापन के साथ स्वयं को अभिव्यक्त करने का माध्यम बनाया।
साहित्य ही उनका जीवन था, रोचक संस्मरण, भारतीय संस्कृति, साहित्यकारों की उपलब्धियों, विशेषताओं की चर्चा करते समय जाने कितने उद्धरण दिया करते, अद्भुत स्मरण शक्ति थी। “आंसू”की चर्चा करें या सूर, तुलसी, मुक्तिबोध की धारा प्रवाह उद्वरण सुनने को मिलता, लोग मुग्ध हो सुनते रहते।
भाषा की पोटली तो साथ ही होती थी, श्रोता की जरूरत के अनुसार हिंदी, छत्तीसगढ़ी, संस्कृत, अंग्रेजी का ज्ञान उपलब्ध हो जाता। अंग्रेजी अध्यापक के रूप में नौकरी शुरू किये, मन रमा नहीं तो हिंदी साहित्य में शोध कार्य किये पी एच डी करके महाविद्यालय के प्राध्यापक नियुक्त हुए, हिंदी में लेख, कहानियां लिखते थे पत्र पत्रिकाओं में रचनायें प्रकाशित हुआ करती थीं।
बंशी धर पांडेय की कहानी हीरू की कहानी से प्रभावित तो थे ही। छत्तीसगढ़ी में कवितायें तो लिखी जा रही हैं किंतु गद्य का अभाव साहित्य भंडार भरने में बाधक है। पालेश्वर प्रसाद शर्मा गद्यकार तो थे ही, फिर क्या पहली कहानी ”नांव के नेह म” प्रकाशित हुई जो बिलासा की बिलासपुर की गाथा है। शृंखला की कड़ियां बढ़ती रही ”सुसक झन कुररी सुरता ले, तिरिया जनम झनि देय, गुड़ी के गोठ, छत्तीसगढ़ परिदर्शन, नमोस्तुते महामाये, प्रबंध पाटल आदि अनमोल किताबें पाठक के हाथों पहुंचती रही।