माँ ….
माँ
I love you
रोज, हर पल मुझे,
तुम्हारी कमी महसूस हो रही है।
तुम होती तो मुझे सुनती
हँसती, बतलाती दुनियादारी!
मुझे वैसा ही तुम जानती थी
ठीक जैसी मैं हूँ!
सारी प्रपंचनाओ से बचाती…
मैं बिलख रही हूँ
तुम बिन!
जीवन का आधार, पतवार, खेवनहार
सब तुम ही तो थीं।
मेरे ठहराव को उद्वेलित करने का
निर्थक प्रयास कर रहे हैं,
कुछ असमयिक पवन के झोंके…
निरंतर कुछ स्वघोषित उचित पक्ष
और प्रबल होने की घोषणा में…
और मैं हमेशा की तरह
कर्म घोषणा के प्रयास में…
माँ सच में मैं अकेली हो गई हूँ
बिल्कुल
जीवन, मन, प्राण, प्रांगण
सब निःशब्द, निरस, शांत हो चुके हैं।
एकाकीपन अनुभूत हो रहा
अपने गुणों-दोषों में भी!
माँ तुम मेरी आत्म-कवच थी
तुम मेरी जग-जाहिर
अच्छाई थी
माँ मै परिचय हीन हो रही हूँ
अब अधूरी पहचान लिए
जीवन जी रही हूँ
मेरे अस्तित्व की पूर्ण पहचान
अब तुम संग मिलन पश्चात ही
होगी!
पहचान की पूर्णता की
प्रबल प्रतिक्षा में
तुम्हारी अल्पना
माँ…
©अल्पना सिंह, शिक्षिका, कोलकाता