लेखक की कलम से

दृष्टि …

दृष्टि

किसी अपरिचित तक की पड़ते ही

क्यों हम सजग हो,

आचरण, कार्य, व्यापार को दुरुस्त करने लगते?

लापरवाही क्षण भर में ही काफूर हो जाती!

न जाने कहाँ?

संयत, संजीदगी से कार्य नव रूप ले,

नव अंजाम तक…

पर

एक दृष्टि भी अंतर्जगत में है!

जो हम पर

नजर टिकाए, गड़ाए, निरंतर तरेरती

उचित-अनुचित का भान कराती

किंतु

हम उसे नजरअंदाज करते,

भाव धारा में बहते,

कर्म करते चले

जाते….

नैतिकता का गला दबा,

स्वयं को बलिष्ठ महसूस करते,

ऐसे कार्य कर बैठते,

जिसे अंतर्मन मंज़ूरी नहीं देता!

हम आत्मा दृष्टि से ही नजर नहीं मिला पाते!

घुट-घुट कर जीते,

परवाह करते नहीं!

उस दृष्टि की!

क्यों आखिर क्यों ….?

प्रश्न उठाती अल्पना की कलम….

©अल्पना सिंह, शिक्षिका, कोलकाता                           

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