लेखक की कलम से

जिंदगी का बोझ ….

(चित्र-चिंतन)

जिंदगी का बोझ देखो,मैं अपने

नाजुक काँधे पे ढो रहा हूँ।

किसी से क्या शिकवा करूँ,

अपने बदनसीबी पे रो रहा हूँ।

 

मेरी खुशी और मेरे गम से,

किसी को आखिर क्या वास्ता।

मुश्किल हालात में,

आसान कहाँ होता है कोई भी रास्ता।।

अपनें संघर्षों का बीज मैं,

आज हर पगडंडी पे बो रहा हूँ–

 

हम यूँ ही अनवरत चलते रहेंगे ,

जिंदगी के धूप -छाँव में।

चलते-चलते थक जाए,

चाहे छाले पड़ जाए मेरे पाँव में।।

फिक्र किसे है जिंदगी की,

मैं खुले आसमां पे सो रहा हूँ–

 

मुझे नहीं पता कि,जहां में ,

औरों की जिंदगी कैसी होती है।

पर  यह सोचकर हैरान हूँ कि,

क्या जिंदगी ऐसी होती है।।

किसी अपनों को तलाशते,

मैं कहीं गर्दिश में खो रहा हूँ—

 

आते-जाते हजारों लोगों ने ,

मेरी मासूमियत को देखा।

पर कोई न मिला जो पढ़ सके,

मेरी किस्मत की रेखा।।

जंग लड़ते -लड़ते खुद से,

मैं अपनी जिंदगी ढो रहा हूँ-

 

 

©श्रवण कुमार साहू, राजिम, गरियाबंद (छग)

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