लेखक की कलम से
वफा …
वफ़ा रस्म उल्फ़त निभानी पड़ेगी,
दिलों की लगी तो बढ़ानी पड़ेगी।
अकेले अकेले चले जा रहे थे,
मगर अब रबानी दिखानी पड़ेगी।
गुलों की तरह जिंदगी हो हमारी,
मगर ये मुहब्बत छुपानी पड़ेगी।
गुजारी शबे इन्तहां इश्क़ में जो,
वफ़ा चाँद को भी निभानी पड़ेगी।
बिना प्यार के यूँ न ” झरना” बही है,
उमंग है भरी तो बहानी पड़ेगी।
©झरना माथुर, देहरादून, उत्तराखंड