तैरती लाशें …
©सुरिंदर गीत, कैलगरी
ऐ गंगा
तुम्हारे पवित्र जल को
दूषित करती
चलती फिरती
गली सड़ी लाशें
किन की हैं
और किधर से आई हैं
कोई कहता इधर से आई
कोई कहता
उधर से आई
लेकिन
जिधर से भी आईं
तुम्हारे अपने देश के
उन लोगों की हैं
जो तुम्हें मां कहते हैं
तुम्हारी पूजा करते हैं
फूल चढ़ाते हैं
पवित्र होने के लिए
पापों से मुक्ति के लिए
तुम्हारे जल में
गोते लगाते हैं
बहुत मुश्किल है
तैरती हुई लाशों को देखने
जो देख लेता है
सो नहीं पाता
बस अपने आप को भारत का
बाशिंदा होने को कोस ही सकता है
एक लाश किनारे आ लगी है
मैं लाशों से बात करना चाहती हूँ
लाशों की ख़ामोशी की भाषा
समझ सकती हूँ
क्योंकि मेरे भीतर
लाशों की पीड़ा बस्ती है
लाश कह रही है
मैं बेरोजगार पुत्र की मां हूँ
निगोड़े करोने ने पकड लिया
मेरा अंतिम संस्कार करने के लिए
मेरा पुत्र बीस हजार नहीं दे पाया
जो कुछ उसके पास था
सब ब्लैक में आक्सीजन
खरीदने पर लग़ गया
सिलंडर खाली निकला
और मेरी साँस टूट गई
मेरा बेटा
मुझे कंधे पर लादे
रात के अँधेरे में मुझे
गंगा में प्रवाह कर या
मुझे पुल से नीचे गिराते समय
मेरा बेटा काँप रहा था
रो रहा था
खुद को और अपनी गरीबी को
कोस रहा था
और लो
एक लाश और आई है
यह किसी खास युवा जिस्म की लाश है
कुछ है
मैंने गली सड़ी लाश की
खुली फूली आँखों में देखा
लाश जैसे कह रही हो
मुझे कोरोना हो गया
किसी हस्पताल में बैड न मिला
हस्पताल के बाहर
मैंने फुटपाथ पर दम तोड़ दिया
पिता की जेब में पड़ा
सौ का नोट
मुझे पानी पिलाने के लिए
टूटता दम बचाने के लिए
खर्च हो गया
मेरा बूढ़ा बाप
रेहड़ी पर लाद कर
मुझे छिपा कर
अँधेरे का आसरा ले कर
आँख बचा कर
पानी में बहा गया
मैं भारी था
बाप बूढ़ा था
भार ढोने वाली रेहड़ी
जिस पर मैं रोज बोझ ढोता था
आज मेरी लाश ढोने के
काम आ गया
और बूढ़ा बाप
खाली रेहड़ी
घर की तरफ
ले जा रहा था
और रो रहा था
पता नहीं
मेरे मां बाप क्या खाते हैं
घर में तो कुछ नहीं था
शायद वे भी लाशें बन चुके हों
और कोई रिश्तेदार
इसी जल में उन्हें बहा गया हो
और वे तैरते आ रहे हों
इन लाशों की
मिलती जुलती कहानी है
बेरोजगारी
गरीबी
कोरोना की बीमारी
न दवा
न दारू
भृष्टचारी
बेबसी और लाचारी
और सब से ज्यादा
राजनीति की मक्कारी
जब लोग लाशें बन रहे थे
राजनीति वोटें गिन रही थी
वे भूल गए
देश जमीन का टुकड़ा नहीं
बल्कि जमीन के टुकड़े पर रहते
वे लोग हैं
जिन्हें वे वोटें कहते हैं
जिन के सीनों में
वे अपने तख़्त के पाए
टिकाते हैं
लाशें नोचने आये कुत्ते
और मंडराती गिद्धें
कहानियां सुन सुन कर रो रहे हैं
सरकारी लोग आए
मशीनों के साथ
लाशें इकठ्ठी कर
गड्ढों में फेंक
मिटटी डाल कर चले गए
कल को और लाशें आयेंगी
ये फिर आएंगे
मनुष्यता को दफ़नाने
और विश्व गुरु का शंख बजाने…..
हिंदी अनुवाद : ©अमरजीत कौंके, पटियाला