लेखक की कलम से

जो अपनी ख़ुशबू को तरसते हैं …

✍ ■ नथमल शर्मा

एक बहुत पुराने गीत की पंक्तियां याद आती हैं- नदियां न पिये कभी अपना जल,वृक्ष न खाए कभी अपने फल…। अपनी अरपा तो ऊपर से सूखी पड़ी है। अंत:सलिला बह रही है (होगी) भीतर। फल की बात अभी नहीं, लेकिन फूल तो खिल रहे हैं। ये फूल हजारों लोगों को रोज़गार देते हैं। कोरोना के बंद में ये सारे पुष्पप्रिय लोग बेरोजगारी की मार सह रहे हैं। उधर खेतों में फूल तो खिल रहे हैं लेकिन खिल कर मुरझा रहे हैं। अनाज की तरह फूलों को बहुत दिनों तक तो सहेज कर नहीं रखा जा सकता न। ख़ुशबू के साथ ही कई घरों का चूल्हा जलवाने वाले ये फूल इन दिनों अपनी ख़ुशबू को ही तरसते हैं।

कोरोना की मार कहां- कहां लगी है। अरपा के इस लाडले शहर में एक फूलों की सड़क है। यानी उस सड़क पर फूल बिकते हैं। मिशन अस्पताल की चारदीवारी से लगकर छोटी-छोटी 50-60 दुकानें हैं। यह सड़क जेल की तरफ़ भी जाती है और बृहस्पति बाज़ार की तरफ़ भी, इधर पास में ईदगाह है और ठीक सामने पुलिस पेट्रोल पंप। इसी किनारे से गर्मियों यानी इन दिनों शाम को निकल जाएं तो मोगरे की भीनी-भीनी ख़ुशबू एक अलग ही आनंद देती है। यहीं रोजाना ही बिकते हैं सैकड़ों गुलदस्ते (अब बुके कहे जाते हैं )। वहीं सामने ही सड़क किनारे सज रही होती है कोई कार। इस फूलों से  सजी कार में कोई जाएगा अपनी जिंदगी को महकाने। शादी ब्याह के दिन हैं ये, और एक नहीं कई ऐसी गाड़ियां सजती थीं यहां।गाड़ियों को फूलों से सजाना एक अलग ही कला है और क़रीब एक हज़ार ऐसे कलाकार है अपने शहर में जो इन दिनों बहुत तकलीफ़ में हैं।  कोरोना ने सब बंद कर रखा है।

मुरझा रहे हैं फूल और कई घरों में ये मुरझाए फ़ूल उदासी बिखेर रहे हैं। कैसे घर चले ? कैसे होगी इस घाटे की भरपाई ? इस चौक से थोड़ा आगे ही इंदु उद्यान चौक है जहां से मगरपारा की तरफ़ बढें तो तीन- चार बड़ी नर्सरी हैं। यहां फूलों के पौधे बिकते हैं। इन दिनों गुलाब और मोगरा के पौधे ख़ूब बिकते हैं। ये पौधे पास के गावों में तैयार होते हैं। कुछ कश्यप तो कुछ अन्य लोग भी हैं फूलों की खेती करने वालों में। कभी टीवी मैकेनिक के रूप में प्रसिद्ध रहे आज वे फूलों की अच्छी खासी खेती कर रहे हैं तो शनीचरी बाज़ार में फसलों के लिए दवाइयां बेचने वालों की भी पास के गांव में फूलों की खेती हो रही है ।कालोनियों में बने घरों में लाॅन होते हैं तो घर -घर में गमले। हर कोई अपनी पसंद के फूलों के पौधे यहीं से ले जाता है। मोगरे की महक के दिन है ये। मोगरे की सजावट भी, हार भी और किसी के बालों में वेणी भी। पर ये सब भी सूनसान है। इन नर्सरियों के मालिक तो फूलों सा महकते ही हैं और अपनी खुशबू बचाए हुए हैं पर इनके खेतों में रोजाना ही कई क्विंटल फूल होते हैं। जिनमें सैकड़ों मजदूर भी काम करते हैं। करीब दस हज़ार लोग जुड़े हैं फूलों की खेती से। ये सब इस कोविड -19 की मार से त्रस्त हैं। खेतों में फूल मुरझा रहे हैं और मजदूरों के घरों में दुख पसरा हुआ है। यह संकट भयावह है। ये विषाणु कहां- कहां मार कर रहे हैं। बरसों पहले बिलासपुर आए थे ये फूलों के किसान ।उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ से आए भरोसरामजी कश्यप की पांचवीं पीढ़ी रह रही है यहां। वे बैलगाड़ी से आए थे उन दिनों। मौर्य परिवार भी शुरूआती दिनों में आने वाला परिवार रहा। ग़ुलामी के दिन थे और ब्रिटिश राज विस्तार कर रहा था। अंग्रेज अफ़सर जहां भी जाते अपनी जरूरतों के लिए हुनरमंद हिंदुस्तानियों को भी ले जाते। रोज़ी रोटी का सवाल! छोड़ना ही पड़ता अपना गांव- घर। कलकत्ता (कोलकाता) से भी निकले थे और रेल्वे के इस सबसे बड़े केंद्र बिलासपुर भी आए। वहां से भी फूलों के किसान आए यहां।

            और हां, फूलों का नाम आए तो लल्लू कश्यप का नाम सहज ही आ जाता है लोगों की  जुबान पर। जूना बिलासपुर में रहने वाले लल्लू कश्यप के फूलों के खेत अजयपुर गांव में हैं। बहतराई के पास के इस गांव में लल्लू सबेरे से ही पहुंच जाते हैं। करीब दस एकड़ में फूल लगाए हुए हैं। रोजाना एक क्विंटल से ज्यादा फूल होते हैं। गुलाब और गेंदा ही ज्यादा। मोगरा और लिली भी। साठ बरस से ज्यादा उम्र के लल्लू सीधे सादे हैं। जैसे ये सरलता फूलों से ही ली हो। फ़ूल तो अपनी खुशबू सहज ही सबको देते हैं। उसका कोई मोल नहीं। लल्लू कश्यप पार्षद भी रह चुके हैं और उस काजल की कोठरी से बेदाग ही निकल भी आए। सबेरे खेत जाना और शाम को अपनी दुकान पर बैठना। लल्लू कश्यप के बच्चे भी इसी व्यवसाय में है। फ़ूल ही रोटी देते हैं। कुछ बरसों से शादीयों के भव्य मंडप बनने लगे हैं और उनमें फूलों की सजावट भी। ऐसे हर बड़े मंडप को लल्लू के फ़ूल ही सजाते हैं। हर बड़े आदमी के मोबाईल में उनका नंबर है। ये बात फ़िर कभी। इन दिनों तो सब कुछ बंद है। सूनसान से शहर में कुछ हलचल शुरू तो हुई है पर भय भी उतना ही है। अभी सब कुछ सामान्य होने में शायद बहुत वक्त लगे। तब तक ये फूल यूं ही खिल कर मुरझाने के लिए अभिशप्त हैं। कोविड -19 ने बहुत दुःख दिए हैं/दे ही रहा है ।पश्चिम बंगाल से सजावट में माहिर सैकड़ो मजदूर यहां आए हुए हैं क्योंकि शादी ब्याह के इन दिनों इन्हें खूब काम मिलता है। कोरोना में ये सब भी फंस गए हैं। न लौट पा रहे और न ही काम मिल रहा है इन्हें।    फ़ूलों के इन मजदूरों के घरों में बहुत दुःख पसरा हुआ है।

बरसों से ये अरपा किनारे ही रहते हैं। उत्तर प्रदेश से कभी आकर यहां बसे काछी। अब कश्यप के  रूप में प्रतिष्ठित हैं। रामलाल कश्यप तो बहुत बड़े विद्वान रहे। फल वैज्ञानिक रामलाल ने आम की कई किस्में इज़ाद की। एक का नाम आम्रपाली रखा जिसका स्वाद गज़ब का है। रामलाल जी ने लोगों को आम की खेती करना सिखाया। नंद कश्यप भी अपने शहर में हैं जो रहते तो नर्सरी के बीच ही हैं पर खूब पढ़ते हैं। फूलों की जानकारी  भी उतनी ही बारीकी से रखते हैं। इन दिनों भी फूल ख़ुशबू तो बिखेर ही रहे हैं पर लगता है इसे कोई सूंघता नहीं। सब घरों में बंद हैं। ये हालत पूरी दुनिया की ही तो है। गूगल करिये तो पता चलता है कि सुकुमार फ़ूलों का देश तो जापान कहलाता है पर  नीदरलैंड में सबसे ज़्यादा फूलों की खेती होती है। दुनिया के आधे से ज्यादा (52%) फूल वहां होते हैं और फूलों के निर्यात से नीदरलैंड तीन बिलियन डालर की कमाई करता है। हमारे देश में गढ़वाल में है फूलों की घाटी। मायथालाॅजी तो यह भी कहती है कि यहीं से बजरंगबली  संजीवनी लेकर गए थे। अपने छत्तीसगढ़ में बस्तर के एक गाँव मैनपुर में भी होती है फ़ूलों की खेती।

वहां की चार आदिवासी महिलाओं श्यामली, पद्मिनी, लच्छमिनी और रेखा की कहानी आई थी कि वे फूलों की खेती कर रही हैं और प्रति एकड़ पचहत्तर हज़ार रुपये कमा रही है। इनके फूल जगदलपुर, कांकेर, धमतरी तक जाते हैं। लेकिन कोरोना के कारण नीदरलैंड से लेकर बस्तर और अपने बिलासपुर तक सब कुछ तो बंद है और ये लाखों टन फ़ूल मुरझा रहे हैं। जिनमें हज़ारो मजदूर काम करते हैं। कैसे चला रहे होंगे अपने घर। फूलों की खुशबू से इनके घरों में रोटियों की महक फैलती है और पेट भरता है। ये सब भूखे पेट भले ही न हों पर मुरझाए फूलों का असर तो कई महीनों तक रहेगा। कैसे फिर महकाएंगे ये अपने खेतों,दुकानों और घरों को ? अपने बिलासपुर में ही करीब तीन हज़ार एकड़ में फूल लगाए जाते हैं। ये सब फ़ूल बर्बाद ही तो हो गए। सबसे ज्यादा बिकने वाला गेंदा जनवरी में लगाया जाता है और मार्च से फसल आ जाती है जो जून तक चलती है। इस बरस तो सब कोविड -19 ने ख़त्म कर दिया। मिशन अस्पताल के किनारे भी सब सूना सूना सा ही है। बाज़ार खुल भी जाए तो ये सड़क इतनी जल्दी महकने लग जाएगी लग तो नहीं रहा। कोविड -19 का ऐसा दुःख कि अपनी ख़ुशबू को ही तरसते हैं वे।

–लेखक देशबंधु के पूर्व संपादक एवं वर्तमान में दैनिक इवनिंग टाइम्स के प्रधान संपादक हैं।

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