लेखक की कलम से

विश्वास …

(लघुकथा)

आज भी नैना की हरकतों से रोहन परेशान था। वह फैसला कर चुका था कि आज वह वकील के पास जाकर तलाक के लिए आवेदन दे देगा। मगर उसकी माँ ने उसे समझाया कि उसे एक और मौका दे दो, समझने का। वह दिल की बुरी नहीं है। तब रोहन ने माँ की ओर देखते हुए कहा।

– माँ, आपने भी तो बचपन से अकेले ही मुझे पाला है और हर काम सिखाया है मगर नैना बस, बात-बात में, बिना बाप की बच्ची होने का रोना रोती है। उसके मन में तो उसकी माँ ने यही बैठा दिया है कि कोई भी व्यक्ति विश्वास के काबिल नहीं होता ह। कोई भी बिना स्वार्थ के किसी की मदद नहीं करता है। उसे सब पर शक करने की आदत है। मैं इस तरह की साईको के साथ खुश नहीं रह सकता।

– अरे बेटा, देखो तुम तो अभी-अभी उसकी जिंदगी में शामिल हुए हो। उसकी माँ की बातें और उसकी तकलीफें, वह पिछले तेईस साल से देख रही है। चलो, आज मैं अपनी सहेली से उसे काउंसलिंग करवाने के लिए भी ले जाऊंगी। उसे और कुछ दिन के लिए मैं तेरी नानी के यहाँ भी ले जाऊंगी। समय के साथ उसकी समझ बढ़ेगी। बेटा तुमने भी तो बर्दाश्त किया है, यह अकेलापन फिर कैसे सोच सकते हो तलाक की बात।

– जी, माँ। गलती हो गई।आप सही कह रही हैं। वक्त हर जख्म का मरहम होता है। चलो अब मैं  ऑफिस जाता हूँ।

– ठीक है बेटा, “आते समय एक बुके लाना मत भूलना।”

– जी, माँ।

(समाप्त)

 

©डा. ऋचा यादव, बिलासपुर, छत्तीसगढ़                   

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