इन्द्रधनुषी नारी …
सतरंगी दुनिया की विभीषिका से
दो चार होती रही
कभी हंसती कभी रोती
कभी सिहरती कभी सिमटती
कभी चहकती कभी उल्लसित सी
हर रंग में खुद को सराबोर करती
जमाने के थपेङो से दो चार होती रही
गरल स्व कंठ मे समेटती रही
निजी अधरों पर मोती रंद लिए
विष पूरित मुस्कान संजोती रही
अबोले नयन मेरे बहुत कुछ
बोलने को आतुर रहे
मन का आत्मविश्वास तेज बन
ललाट पर दैदिप्यमान रहा
मैं तेजस्वी नारी शक्ति
मैं हार कभी न मानूंगी
कितने भी झंझावत आऐ
हर मुश्किल में राह निकालूगी
पौरूष शक शूल बिंधी
पाषाण अहिल्या बन जाऊंगी
राणा का भेजा विष पी करके
प्रेम दिवानी मीरा कहलाऊंगी
हरी प्रेम में मगन वियोगिनी
राधा बन पाऊंगी राधा बन पाऊंगी
पति आज्ञा का पालन कर
सीता बन धरती में समा जाऊंगी
पितृ गृह पति अपमान सहन न कर
अग्नि प्रविष्टि हो जाऊंगी
शिव पाने को प्रेम मगन हो
तप कर पार्वती हो जाऊगी
देश की रक्षा करने को
पन्ना धाय बन निज धर्म निभाऊंगी
राष्ट्र की बागडोर सम्हालने को
शिवाजी जैसा पुत्र जानाऊंगी
इस सतरंगी दुनिया का हर रंग
मुझ ही में समाहित है
मैं भारत की अबला नारी ही नहीं
मैं स्व सम्पूर्ण सबला नारी हूं
गर अपनी पर आ जाऊ तो
वह क्या है जो नामुमकिन है
मैं तेज पुंज अडिग विश्वास
मैं हर रंग रूप परिपूर्णित हूं
मैं हर रंग से ओत प्रोत
मैं नर से भारी नारी हूं।।
©शशि अग्रवाल, बुढ़ार, मध्यप्रदेश