पर्यावरण और हमारा अस्तित्व …
बिलख रही वसुधा भी आज,
संतानों की पीड़ा पर,
कितना सिसकी माँ हमारी,
हम सबकी नादानी पर,
देती रही सदा वो हमें,
पर दोहन हम करते रहे,
प्रकृति माँ के प्रेम से,
सदा अनभिज्ञ ही रहे,
एक प्रश्नचिन्ह हैं आज सामने,
हम सबकी नादानियों का,
आज दर्द दे रहा वक्त,
खोयी भाव संवेदनाओं का,
स्वार्थगीत जो गाये थे,
आज अश्रु ही देते है,
देख,आज जन जन की पीड़ा,
हर नयन ही रोते हैं,
अश्रु कुछ भाव जगाए,
तो दुःख कुछ तो थम जाएगा,
थमे जो पतन का दौर,
तो सैलाब यह रूक पायेगा,
प्रकृति से परे नही हम,
प्रकृति से ही बने हैं हम,
प्यारी सी प्रकृति माँ के,
एक सुगंधित फूल हैं हम,
काज हमारा बस प्रेम,
करुणा फैलाना हैं,
अपने इन सुगंधित धागों से,
बस वसुधा को सजाना हैं,
वसुधा तो बहुत दे चुकी,
बस कर्ज आ चुकाना है,
कुछ निज प्रयासों से,
बस इसे जगमगाना हैं,
धरा हमे बस हैं देती,
वो भी लेते जाना है,
बस लौटाकर ही सब,
पुनः लौट घर जाना है,
सत्य यही है जो सिखाता,
बस देते ही जाओ तुम,
प्रेम,करुणा,सेवा से,
कुछ खुद को जगमगाओ तुम,
वरना सब धरा ही रहना,
धरा से एक दिन जाना है।।
©अरुणिमा बहादुर खरे, प्रयागराज, यूपी