काल प्रेतनी …
उजड़ रहीं हैं बस्तियां
चीखें हवा में तैरती
कब रुकेगा सिलसिला
दुनिया से जाने वालों का
आज हर घर दूसरा
मकान में तब्दील है
बुत बना दरवाजे बैठा
देखता कोई राह है।
लौट कर आएगा प्रिय
इस आस में हैं जीरहे
अधखिले हैं फूल टूटे
डालियों से झर रहे
खेत भी सुनसान हैं
बगीचे भी हैरान है
जैसे कोई छद्म माली
कर रहा उपहास है।
देर से ही सही अब
सिलसिला ये रोक दो
शमशान भी कम पड़े
मौत के कुएं बंद हो
रात दिन सब एक हैं
सूरज पर क्यों लगा ग्रहण
पूजेगा नहीं कोई तुझे
मालिक तू ही सय्याद है।
जिस घड़ी आंगन जहां
बजनी थी कल शहनाइयां
चूड़ियां ,मेहंदी बनी हैं
दुल्हन की रुसवाईयां
लाल चुनरी ले उड़ी है
प्रेतनी काल की
मातम की छावनी बना
घर आंगना वीरान है।
टूट गई हैं सरहदे
आपस में हर कोई पूछता
धर्म कोई हो या जाति
मिट गई संकीर्णता
जो न हो पाया प्रभु
प्यार से इस संसार में
एक तिरछी भ्रकुटि से
जगा मानवी एहसास है।
©मधुश्री, मुंबई, महाराष्ट्र