प्रेम ….
मेरा प्रेम है निर्मल निश्चल,
रंचक जिसमें नहीं कपट छल।
दुनिया के बंधन ना जानू,
ना जानू मैं रीत।
प्रेम किया था ह्रदय से मैंने,
बांधा था सासों से अपने।
दुनिया से हो जाऊं अलग मैं,
तुझमें ही रम जाऊं कहीं मैं।
पावन, पावस, प्रीत, पुनीत
अविरल धारा सी ये नीर।
ज्यों-ज्यों भीनी बहे समीर,
त्यों-त्यों उमड़े हिय की पीर।
बिहान की पहली उंजियारी में,
सघन नेह की चिंगारी में।
रोम – रोम में प्रेम – प्रेम है,
प्रेम – प्रेम में सहज सुनीत।
अनूप, अटल और अमर प्रेम है,
सहज, सरल और सबल प्रेम है।
भांति सुमन के सुरभि प्रेम की,
अंबर से लेके अवनि प्रेम की।
छवि तुम्हारी ह्रदय भीत में,
उतरेगी ना जगत रीत में।
प्रेम में है इतनी अभिलाषा,
बूझूं तेरे मैं दर्द की भाषा।
क्या उपमा दूँ मैं विरह प्रेम की,
ना दिखने वाले मेरे नीर की।
मधुशाला सी तेरी प्रीत है,
रहूँ लीन मैं यही नीति है।
नहीं विचारा प्रेम से पहले,
ना ही सोचा मैंने प्रतिफल।
©शिल्पी सिंह बघेल, बड़खेरा, शहडोल