व्योम …
कभी शांत, एकाग्र होकर
सोचती हूँ तो पाती हूँ
स्त्री और पुरुष का संबंध है
बिल्कुल धरा और आकाश सा।
स्त्री धरा की मानिंद सहती है
जीवन पर्यंत,
आकाश रूपी पुरुष की
मौसम, बेमौसम गर्जना और
प्रायः होती है बेतरह
आक्रोश की बारिश भी
कौंधती है क्रोध की दामिनी भी
जो कभी-कभी गिर भी जाती है
धरा रूपी स्त्री पर
स्त्री सहती है चुपचाप सब कुछ
नहीं कह पाती अपने मन के अंदर घुमड़ते
दर्द के बादलों से उत्पन्न
सैलाब की घुटन को
कहे भी तो किससे?
जानती है वह
जितना आवश्यक है धरा के लिए व्योम का अस्तित्व
उतनी ही आवश्यक है स्त्री के जीवन में
पुरुष की आसमानी छत्रछाया
पोषित और पल्लवित करने
उसके आँचल तले पलने वाले
कोमल पौधों के लिए
एवं स्वयं उसकी तरफ उठती
कुत्सित दृष्टि की आँधी के लिए
क्या धरा का त्याग, आवश्यकता, उपयोगिता
कुछ कम है आकाश से?
धरा तो नहीं गरजती, बरसती
या कौंधती दामिनी सी
हाँ, जब उपेक्षा का घाव
ज्यादा गहरा हो जाता है
तो काँप अवश्य जाती है धरा
सोचती हूँ अगर धरा ना होती
तो किस पर गरजता, बरसता अंबर?
किसे भयाक्रांत करता अपनी कौंधती दामिनी से?
तब शायद अस्तित्व विहीन हो जाता आकाश
यदि धरा ना होती
ना रहता आकाश, आकाश सा।।
©छाया गुप्ता, बुढ़ार, मध्यप्रदेश