लेखक की कलम से
कब तलक …
कब तलक चलते रहोगे,
खुद से दूरी बनाते रहोगे।
जिंदगी की इस दौड़ में,
खुद से यू भागते रहोगे।।
माना धन जरूरी है बहुत,
पर तुमसे ज्यादा तो नहीं।
रिश्तो की भी परिभाषा,
प्रेम बिना बनी नहीं।।
यू ही क्या चलते रहोगे,
भौतिकता से मिलते रहोगे।
अंतस जगत की यात्रा,
क्या कभी नहीं करोगे।।
रूक लो जरा,
कुछ थामो तो गति।
कुछ अच्छे कर्मों से,
मिलती जीव को सदगति।।
तो आज रुको,
देखो जरा,
कही कोई दुखिया तो नहीं,
अभावों से ही भरी,
कही उसकी ,
कुटिया तो नहीं,
ले लो कुछ जरा अपने महल से,
झोली जरा उसकी भरो,
जो शिक्षा से हीन जरा,
शिक्षा जरा,
उसको भी दो।
अनाथों के जरा,
सनाथ अब पन जाओ न,
प्रेम के कुछ दीप जरा,
तुम भी तो जलाओ न,
मत चलो अब लक्ष्यविहीन,
बस लक्ष्य पर बढ़ते चलो,
लक्ष्य बना अब जरा,
पीर मानवता की हरो।।
©अरुणिमा बहादुर खरे, प्रयागराज, यूपी