लेखक की कलम से

आओ बुद्ध हो जाएं ….

क्षण भर के लिए उतारकर बोझ संबोधनों का, जिम्मेदारियों का, ओढ़ ले पलभर के लिए उन्मुक्तता उस विहंग भाँति जो बेशक़ उड़ान भरता है अपने नीड़ ख़ातिर विस्तृत आसमाँ में…

माना बुद्ध होना आसान नहीं हम स्त्रियों को, नहीं त्याग सकतीं वे अपने निर्वाण हेतु घर की दहलीज़, एकांतवास नहीं ले सकतीं पर सुनो पल भर के लिए एकांतवास को ओढ़ सकती हो अपनी मन की शांति के लिए…

ब्रह्म ज्ञान हमें जन्मजात विरासत में मिला है उपदेशों की घुट्टी हमें पालने में ही पिला दी जाती है। मंत्रोच्चार कम परंपराओं की कई अनसुलझी गुत्थियाँ हमें उसी वक्त फूँक दी जाती है हमारे कानों में…

कुछ और न सिखाया गया हो पर तुम स्त्री हो यह बार बार जतला दिया जाता है.

नतीजा हम श्रेष्ठ होकर भी स्वीकार कर लेती है अपनी कमज़ोरी..

ऊँचा बोलना शोभा नहीं देता बस खामोश हो सहम जातीं हैं उसकी आवाज़., मैं कहाँ कहती हूँ कि विरोध करो तुम हर बात का सुनो जीवंत रहना है तो थोड़ा विरुद्ध भी तो जाना होगा न.

बस जी लो पल भर सही बुद्ध सी जिंदगी सोने से पहले या दिन में एक बार..जिम्मेदारियों का क्या है वह तो परछाई सँग चलती रहेगी ताउम्र..

रही बात स्वच्छन्दता की तो हम इतनी डरी हुई है की कदम आगे बढ़ते ही नहीं। और आगे बढ़ भी गए तो रोज मरती है सोच सोच कर, तो सुनो आओ पल भर ही सही चले आँगन को बना लिम्बुनी उपवन उठा ले एक आराम चेयर, मन को बाँध एक आसन में बंद करले पल भर आँख, हो मुद्रा फिर योग की पल भर करले बुद्ध सा विश्राम निर्वाण की चाह नही रखनी स्वछंद उड़ान को भींच मुठ्ठी में चलो पल भर हो जाएं हम बुद्ध..,जानती हूँ आसान नहीं बुद्ध होना। ना ही धारण करना …..

 

©सुरेखा अग्रवाल, लखनऊ                                              

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