लेखक की कलम से

प्यार ….

गज़ भर

ही दूर है

किनारा …

ऐसा लगा मुझे,

कि बस…

लपक कर , पकड़ लूंगी।

मैं लपकी भी।

पर यह क्या?

वो तो रेत का था,

मेरे हाथों से फिसल गया।

शायद….

जो हर बार मुझे आख़िरी लगा‌

ये तो वही सवाल था,

मेरे प्यार का तेरे इनकार का,

लेकिन…

हर जवाब ने

एक नया सवाल खड़ा कर दिया।

मेरे अदने से प्यार को,

और बड़ा कर दिया।

आखिर…

ये किनारा दिखाई ही क्यों पड़ता है?

ये किनारा

बादलों में उमड़ी उम्मीद की तरह,

बस एक भ्रम है।

शायद इसीलिए

मेरा हर सफर…..

बिना मंज़िल के ही

ख़त्म हो जाता है ।

मेरा हमसफ़र बन जाता है

हर – सफ़र….

जिसके साथ तय कर रही हूँ,

एक अनजाना रास्ता, जिससे

कोई पहचान है न वास्ता।

 

 

©क्षमा द्विवेदी, प्रयागराज                

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