दुनिया

आइंस्टिन और आर्यभट्ट को चुनौती देने वाले वशिष्ठ नारायण को तो भूला दिए, अब कौन बजाएगा दुनिया में डंका

पटना। ‘ज्यादा मत पढ़ो, वरना वशिष्ट नारायण सिंह बन जाओगे’ – ये जुमला अक्सर ही विद्यर्थियों के बीच उछाला जाता था, जब हम स्कूल में थे। जानते हैं ये वशिष्ठ नारायण सिंह कौन हैं ? जिनका तुक दिया जाता था। वही जिन्होंने आइंस्टीन के साक्षेप नियम को चुनौती दी थी। जो भारत में गणित के आर्यभट्ट और रामानुजम का विस्तार माना गया था। वही वशिष्ठ जिनके लिए कभी पटना विश्विद्यालय का कानून बदलना पड़ गया था। उनके बारे में मशहूर है कि नासा में अपोलो की लांचिंग से पहले जब 31 कंप्यूटर कुछ समय के लिए बंद हो गए तो उन्होंने उंगली पर गणना शुरू कर दिया, कंप्यूटर ठीक होने पर उनका और कंप्यूटर्स का कैलकुलेशन एक था।

वही वशिष्ठ जिसे दुनिया तो छोड़ो खुद उनके देश, उनके प्रान्त, उनके लोगों ने भूला दिया, वह आज 40 वर्ष के बाद भी खुद के होने की निशानी तलाश रहा है। मैं बात कर रही हूं महान मैथमैटिशन डॉ. वशिष्ठ नारायण सिंह की।

बदहाली का चरम…

यह लेख दो दिन पूर्व लिखा गया था…

2 अप्रैल 1942 को जन्मे डॉ. वशिष्ठ बचपन से ही बहुत होनहार रहे। छठी क्लास में नेतरहाट के एक स्कूल में कदम रखा, तो फिर पलट कर नहीं देखा। पांच भाई-बहनों के परिवार में आर्थिक तंगी हमेशा डेरा जमाए रही, लेकिन इससे उनकी प्रतिभा पर कभी ग्रहण नहीं लगा। एक गरीब घर का लड़का हर क्लास में कामयाबी की नई इबारत लिखता गया। वे पटना साइंस कॉलेज में पढ़ रहे थे कि तभी किस्मत चमकी और कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर जॉन कैली की नजर उन पर पड़ी। जिसके बाद वशिष्ठ नारायण 1965 में अमेरिका चले गए। साल 1969 में उन्होंने कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी से पीएचडी की और वॉशिंगटन विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर बन गए। नासा में भी काम किया। पर पिता के आदेश और जन्मभूमि का आकर्षण उन्हें वापिस भारत खींच लाया और यही से शुरु हुई एक “वैज्ञानिक” के पागल बनने का सफर।

पहले आईआईटी कानपुर, फिर आईआईटी बंबई और फिर आईआईटी कोलकाता की सांख्यकी विभाग में शिक्षण कार्य शुरू किया। यही वो दौर था जब कई प्रोफ़ेसर्स ने उनके शोध को अपने नाम से छपवा लिया, और यह बात उनको बहुत परेशान करती थी और भी बहुत सारी बातें जैसे शोध पत्रों की चोरी, पत्नी से खराब रिश्ते इन सब का असर बुरी तरह से उनके दिमाग पर पड़ा।

साल 1974 में उन्हें स्किज़ोफ़्रेनिया का पहला दौरा पड़ा। धीरे-धीरे स्थिति और भी खराब हुई और 1976 में उन्हें रांची के कांके स्थित मानसिक आरोग्यशाला में भर्ती किया गया। कुछ तो परिवार की विपन्नता और सरकार की अकर्मण्यता ने समुचित इलाज नहीं होने दिया। एक बार ऐसे ही इलाज के दौरान घर आने के क्रम में 1989 में अचानक वो रास्ते से गायब हो गए। चार साल बाद 1993 में बहुच ही दयनीय स्थिति में सारण में पाए गए। तब से अब तक वो अपने वसंतपुर स्थित गांव में अपने भाई के परिवार के साथ रह रहे हैं।

डॉ. वशिष्ठ का परिवार उनके इलाज को लेकर अब नाउम्मीद हो चुका है। इसी बीच खबर है कि बहुत ही खराब हालत में उन्हें पटना के pmch के आईसीयू में भर्ती किया गया है। अब तक स्थिति थोड़ी कंट्रोल में है। पर क्या कंट्रोल यही की वो जीवित हैं, उनकी सांसें चल रहीं हैं। पर ऐसी तो नहीं होनी थी उस वशिष्ट की जिंदगी जो आज भी 15 -16 घंटे गणित केइक्वेशन सॉल्व करता है पर अपनी ही इक्वेशन नहीं जानता। हर दो तीन में एक कॉपी भर देता है, जब भी दिमाग में कुछ हलचल होती है, घर की दीवार-मेज सब पर लिखता है। घर के लोग कभी आंखों में आये आसूं तो कभी होठों के किनारे हल्की सी आई मुस्कुराहट से देखते हैं और सोचते हैं घर में किताबों से भरे बक्से, दीवारों पर वशिष्ठ बाबू की लिखी हुई बातें, उनकी लिखी कॉपियाँ, क्या वशिष्ठ बाबू के बाद ये सब रद्दी हो जाएगा और कबाड़ के भाव बिक जाएगा।

खैर सरकार और बाकी लोगों से क्या कहूं, बस यही है कि तुम्हारे निर्जिव होने से डॉ. वशिष्ठ का क्या गया ? गया तो तुम सब का हतभागो, अब कहाँ से पैदा करोगे दूसरा वशिष्ठ ? जो देगा आइंस्टीन को चुनौती, पूरी दुनिया मे बजवायेगा तुम्हारे नाम का डंका।

©विजया एस कुमार

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