बिलासपुर

सूने शहर में वो बिखरती ख़ुशबू, वो स्वाद …

✍ ■ नथमल शर्मा

अपने शहर का सबेरा अखबारों की गाड़ियों, हाकर्स की आवाजाही और उबलती चाय की ख़ुशबू के साथ ही तो होता। ये सब भोर से ही, जब पूरा शहर सो रहा होता। स्कूल के लिए बसें भी बाद में ही निकलती और दूध वाले भी थोड़ी देर से ही आते। अरपा के किनारे जब सूरज निकलने का संकेत दे रहा होता तब से हमारे ये साथी सड़कों पर होते। इनके साथ ही शुरू हो जाती चाय की दुकानें। इसमें कहीं पोहा भी बन जाता तो जलेबी, समोसा भी। कुछ बरसों से इडली दोसा भी। बहुत भीड़ होती इन दुकानों में। सबेरे के जांबाज साथी अपनी सायकिलों में अख़बार बांधे अपनी किसी ऐसी ही पसंद की दूकान पर चाय की चुस्कियां लेते और बढ़ जाते।

कोविड 19 से सूनसान हुए शहर में अब ऐसा कुछ नहीं। सूरज निकलता है अभी भी अरपा के ही किनारे से। सूने सूने बिलासपुर को देखता है। उसे भी तो सबसे पहले इन साथियों को देखने की आदत पड़ गई थी। उबलती चाय की भाप को देखे उसे भी बीस दिन हो गए। ऐसी उदास सुबह लिए सूरज चल पड़ता है अपनी यात्रा पर। सूने-सूने से शहर में इन दिनों सब कुछ बंद है। वे सारी प्रसिद्ध और कम प्रसिद्ध होटलें भी बंद है जिसमें रोजाना ही हजारों लोग स्वाद लिया करते थे। मिशन अस्पताल रोड़ या श्रीकांत वर्मा मार्ग पर तो अभी कुछ बरसों से ख़ुशबू उड़ती है।

बरसों पहले प्रताप चौक (अब देवकीनंदन दीक्षित चौक) पर परसा भाया यानी परसराम माटोलिया की रौबदार आवाज़ गूंजते रहती और गरम-गरम जलेबियाँ बनते रहती। छोटे-छोटे समोसे भी। एक दोने में दो समोसे और उसी के ऊपर तीन चार जलेबी। अंदर तो थोड़ी सी जगह होती। लोग बाहर सड़क पर ही खड़े होकर खाते। क्या नेता, क्या पत्रकार, व्यवसायी, यानी कोई नहीं छूटता। सब आते। ज्यादातर को भाया नाम से जानते और व्यवसायिक चातुर्य नहीं बल्कि स्नेह से सबको खिलाते। चार कदम दूर पर ही बीआर यादव रहते।

पत्रकार से मंत्री बने यादव जी सबेरे से भाया के यहाँ आ जाते। उनसे मिलने वाले भी अपनी समस्याएं लेकर वहीं आ जाते। गले में हाथ डालकर यादव जी लोगों की बातें सुन लेते। तब तक सूरज बहुत ऊपर आ चुका होता। देवकीनन्दन स्कूल भी खुल जाती।हालांकि वहां की टीचर्स अधिकतर दोपहर को ही अपनी पसंद के समोसे यहीं से मंगाती। इस स्वाद को अब अपने नाती पोतों को बताते हुए आज भी उनकी जबान पर पानी आ ही जाता है। कोविड 19 ने सब सूना सूना सा कर दिया। अरपा के किनारे या अरपा के दोनों ओर बसे अपने शहर में ऐसी प्रसिद्ध होटलें और भी है।

संतोष भवन का कांदा बड़ा तो दूर-दूर तक मशहूर। बरसों पहले रंगकर्मी हबीब तनवीर आए थे। कहीं से लौट रहे थे। सबेरे ही यहां पहुंचे और उन्होंने भी कहा कि यहां के कांदा बड़ा का नाम सुना है। भाया की जलेबी और संतोष भवन का कांदा बड़ा उस दिन पहली बार खाया उन्होंने। शायद 1986 की बात। फिर तो हमेशा ही याद करते रहे। संतोष भवन की चाय, और चटनी (कढ़ी), जालीदार दोसा तथा शाम को आलूबोंडा भी। बरसों हो गए। सबका स्वाद वही। वैसा ही जो करीब सौ बरस पहले था। आवटी साहब (ए डी आवटी) खुद अपने सामने मसाला बनवाते। कढ़ी चटनी घर से बनकर आती। मज़ाल है कि एक दिन भी कोई कमी रह जाए। आवटी साहब के बाद नारायण आवटी बैठते हैं, हालांकि जरा कम।

सौ बरस में शहर कितना बदल गया पर यहां की सादगीपूर्ण टेबल कुर्सियाँ और काऊंटर तक भी वैसा का वैसा ही। आज के महापौर रामशरण यादव ही नही पूर्व महापौर अशोक पिंगले का भी सबेरा यहीं से शुरू होता। शाम को भी जुटते पार्षद और बाकी ढेर सारे नेता। एक किनारे खड़े होते। राजनीति के गुणा भाग करते रहते हैं। सदर बाज़ार के तीन दोस्त भी अक्सर आते। इन्हे दो आलूबोंडा कम पड़ता और तीसरा ज्यादा हो जाता। रात को खाना नहीं खाएंगे कहते हुए यूनिएंजाइम की पाचक गोली खाकर जाते। ये सब अब सूनसान है। कोई नहीं आ रहा। कोविड 19 ने सबको घरों में बंद कर दिया है।

कुछ आगे ही तो गोलबाजार है। जहां उन दिनों ब्रजवासी, नीलकमल, पेंड्रावाला और मौसाजी होटल हुआ करती थी। फिर पांडेय स्वीट्स भी। अंदर वट वृक्ष के आगे रबड़ी दूकान भी। सबके नेता मूलचंद खंडेलवाल हुआ करते। छोटी सी काया लेकिन बुलंद आवाज़ वाले मूलचंद खंडेलवाल का ऐसा ख़ौफ कि मज़ाल है नगर निगम, फूड आफिस या कोई भी अफसर गोलबाजार में किसी भी दुकान की जांच करने आ जाएं। ऐसा जलवा था। नीलकमल में मिठाइयां, नमकीन सब स्वादिष्ट। पर वहां फिर जमावड़ा होने लगा भाजपा नेताओं का। यादव जी के खिलाफ़ राजनीति होती। ‘एक दिन तो हरा ही दूंगा’ कहते हुए मूलचंद जब कहते तो लोग हंसते। पर यह सच हुआ और मूलचंद ने पहली बार न केवल हराया बल्कि मंत्री भी बने। मंत्री बनकर भी नीलकमल आते रहे।

एक दिन बातों – बातों में उत्साही हो गए और कहा आज भी कुछ भूला नहीं हूं। और खुद ने ही गरमागरम जलेबी बनाई , भजिया भी। सबको प्रेम से खिलाते हुए मंत्री के रूप में किस तरह अफसरों पर रौब गांठते हैं भी बताते रहे। अगला चुनाव वे हार गए। फिर लड़ ही नहीं पाए। फिर नहीं आए नीलकमल। फिर बंद भी हो गई वो दूकान। आज किराए पर कोई और दुकान है वहां। इस पराभव के बीच मौसाजी की प्रसिद्धि बढ़ती गई और “मिठाई यानी मौसाजी” तक पहुंच गई। बाकी होटलों की भट्टियों से भी समोसे,बड़े, फाफड़ा , इमरती,बालूशाही  सब बनते रहे। लोगों की सुबह शाम इसी स्वाद के साथ होती। इन दिनों पांडेय स्वीट्स के बाजू वाली सड़क पर गरमागरम मंगोड़े, मिर्ची भजिये और भी नमकीन की ख़ुशबू से खिंचे चले आते हैं लोग। बहुत भीड़ होती है (थी)। अब सब सूना-सूना सा है।

शहर के सूनेपन में बहुत कुछ खो गया है। हालांकि कोविड 19 के भी बहुत पहले। कुछ बरस पहले जब श्याम टाकीज गुलज़ार हुआ करती थी तब टाकीज के सामने एक टोकनी लेकर बैठती थी एक बुजुर्ग महिला। सब उसे पकोड़े वाली डोकरी कहते। दो तीन घंटे में ही सारे पकोड़े बिक जाते। याद तो लोगों को सदर बाज़ार के एक चबूतरे पर रोज रात को रबड़ी बेचने वाले बुजुर्ग की भी होगी। ऐसी बहुत सी यादें हैं। गांधी चौक के गुरूनाननक स्वीट्स या रविन्द्रनाथ टैगोर चौक के भैयाजी स्वीट्स, टिकरापारा चौक के गुजराती होटल या कि विनोबा नगर के रामकृष्ण स्वीट, मुंगेली नाका के मनोज स्वीट्स, कोआपरेटिव बैंक के पास नारि के प्याजी बड़े, हाल ही में जेल में शुरे हुई कैंटीन के मंगोडे, उधर तोरवा के गुरूनाननक चौक के घनश्याम की होटल तो स्टेशन की मुल्कराज होटल। खपरगंज के गोरिया भाया और तेलीपारा चौक के राजस्थान स्वीट्स से लेकर रामा मॉल के सामने अन्ना का इडली दोसा, काफ़ी हाऊस और मारवाड़ी लाइन की कचौरियों और मथुरावासी की चाट। सबका अपना अलग ही स्वाद।नान वेज वालों की पसंद मद्रासी होटल और शाकाहारियों की शिवा, रसोई सब बंद हैं।  ये सब पिछले बीस दिनों से बंद है। घरों में ही हैं लोग।

इसके अलावा सैकड़ों ठेले, छोटी छोटी दुकानें। गुपचुप, पाव भाजी, चाट, भेल, कुल्फी, आमलेट और सींक कबाब के ठेले। सब कुछ बंद है। लोगों को इनका स्वाद नहीं मिल रहा है वह तो है ही इस कोविड 19 ने इन सभी छोटे दुकानदारों के घरों में भी तो संकट पैदा कर दिया है। अब हर होटल वाला मौसाजी तो नहीं या हर चाट वाला मथुरावासी नहीं। ये सैकड़ों लोग तो रोज कमाने खाने वाले हैं। सभी बड़ी होटलों में काम करने वाले कामगार भी तो बड़े नहीं। कईयों को तो दैनिक रोज़ी मिलती है। सबके मालिकों ने घर बैठे तनख्वाह थोड़े ही भिजवा दी होगी। सबको स्वाद देने वाले ये सब अपने घर की रोटियों के स्वाद के लिए ही तरस रहे हैं।

लाकडाऊन के बाद क्या हालात होंगे, किस तरह फ़िर से काम शुरू कर पाएंगे ? सूख गई अरपा के पास भी इन सवालों के जवाब नहीं। ऑनलाइन पिज़्ज़ा बर्गर मंगवाते लोग उन ज़ोमैटो की लाल पेटी वाले सैकड़ों युवाओं को याद कर रहे होंगे क्या जिन्हें कोविड 19 ने बेरोजगार कर दिया। घरों में बहुत कुछ बन रहा है इन दिनों। पर बहुत सारे घरों में किसी तरह कुछ बन जाए के हालात भी हैं। अभी कुछ दिन और सब कुछ बंद ही रहना है। बहुत सारी होटलें हैं (थी) जहां से रात का बचा और हमारा झूठा छोड़ा हुआ खाना भी कुछ का पेट भर देता था। उन सबकी पेट की आंते भी कुलबुला रही है। कोविड 19 ने पूरी दुनिया को संकट में डाल दिया है।

–लेखक देशबंधु के पूर्व संपादक एवं वर्तमान में दैनिक इवनिंग टाइम्स के प्रधान संपादक हैं।

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