बोधि के बाद भी
आज़ाद पक्षियों को
बेख़ौफ़ विस्तृत आकाश में
उड़ान भरते देख
तुलना करने लगते हैं
हम इनसे अक्सर अपनी…
अनन्त सागर में
रंगीन मछलियों को
अटखेलियां करते देख
बिना दूसरे के सौंदर्य से
ईर्ष्या करते जलचरों
को देखकर….
अभिव्यक्ति बेमानी
लगती है कभी कभी
ज्ञान तकलीफ देता है
सहजता किसी बोध के बाद
कहां रह पाती है?
घर की चहारदीवारी
छोटा सा समाज
समाज के लोग
व्यापक होते होते,
राष्ट्र व्यापी झगड़े
हमारे अहंकार को
विस्फोटक स्थिति तक
पहुंचाते हैं….
तब भी क्या हमें
इन आज़ाद पशु-पक्षियों
जलचरों से
इनकी व्यापक उड़ानों से
इनके व्यापक विचरणों से
अपनी तुलना करनी चाहिए?
जो आज़ाद तो हैं
पर उन्हें पता नहीं
अभिव्यक्ति के लिए
इंसान होना ज़रूरी है
और इन्सान होने के लिए
इन जैसा व्यवहार
ज़रूरी है…….
बस यहां बोधि के बाद भी
अबोध, सरल, सहज
रहकर ही छुआ जा सकता है
विस्तृत आकाश…
ज़मीन पर रहकर ही
जड़ें जमाई जा सकती हैं
इंसानियत की……….