अपराजिता तुम कितनी जिद्दी हो …
अपराजिता तुम कितनी जिद्दी हो।
मैनें तो सोचा था, तुम इरादों से पिद्दी हो।
तुम्हें पानें को मैंने कितने जतन किये।
रोक -टोंक और ना जाने कितनें सितम किये।
तुम शनैः शनैः चलती रही प्रकश की ओर।
तुम्हें मिल ही जायेगी अपनें हिस्से की भोर।
इस कविता की प्रेरणा मेरी बालकनी में लगी अपराजिता की बेल है।
पिछले साल जब यह बेल लगाई तो यह बालकनी की जाली के पास थी और, प्रकाश के पास बस फिर क्या था, वह सीधे बालकनी के बाहर फलने फूलने लगी मैं मन मसोस कर रह जाती, मुझे उसका एक भी फूल नहीं मिल पाता।
इस साल मैंने उसकी कटिंग कर गमले को बालकनी के भीतर की ओर खिसका लिया, खूब फूल मिले लेकिन बेल ने भी हार नहीं मानी वह हर रोज अपने हिस्से का प्रकाश पाने के लिए आगे बढ़ती रही और जब वह सफल होने के काफी करीब है मुझे बहुत फक्र हो रहा है, अपनी अपराजिता पर।
जीवन जीवन मिलने के साथ ही हमें अपने हिस्से की खुशी पाने की जिद्द का तोहफा अपने आप मिल जाता है, यह जिद्द बनाए रखिये, जिंदादिल रहिये।
©वैशाली सोनवलकर, मुंबई