समझिए दोस्ती है या जान-पहचान……
उन चारों को होटल में बैठा देख, मैं हड़बड़ा गया था।
लगभग 25 सालों बाद वे उसके सामने थे। शायद अब वो बहुत बड़े और संपन्न हो चुके थे।
मुझे अपने मित्रों का आर्डर लेकर परोसते समय बड़ा अटपटा लग रहा था।
उनमे से दो मोबाइल फोन पर व्यस्त थे और दो लैपटाप पर।
मैं पढ़ाई पूरी नहीं कर पाया था। शायद इसीलिए उन्होंने मुझे पहचानने का प्रयास भी नहीं किया होगा।
वें भोजन कर बिल अदा करके चले गये।
अब मुझे लगा कि वो चारों शायद पहचानना ही नहीं चाहते थे या मेरी हालत देखकर, जानबूझ कर पहचानने की कोशिश ही नहीं की।
खैर….. एक लंबी सांस के साथ मैं फिर अपनी टेबल साफ करने लगा।।
टिश्युपेपर उठाकर कचरे में डालने ही वाला था, पर एक पेपर कुछ अलग सा था, शायद उन्होंने कुछ जोड़ा-घटाया था।।
अचानक मेरी नजर उस, लिखे हुये शब्दों पर पड़ी,
लिखा था — प्रिय मित्र तू हमें खाना खिला रहा था पर, आज, बचपन की तरह साथ बैठा नहीं। तुझे टीप देने की हिम्मत हममें नहीं थी, हमने तेरे इस होटल के पास ही उद्योगपुरी में एक नयी फैक्ट्री के लिये जगह खरीदी है, अब इधर आना-जाना तो रहेगा ही।।
तो सुन, आज तेरा इस होटल का आखरी दिन। हमारी फैक्ट्री की कैंटीन भी कोई तो चलायेगा ही ना ? तुझसे अच्छा पार्टनर और कहां मिलेगा??? स्कूल के दिनों हम पांचों आपस में एक दूसरे का टिफीन खा जाते थे…. अब से तेरा बनवाया ही खाएंगे।
शायद यही दोस्ती का सच्चा सही स्वरुप है….
ना कोई सुदामा-ना कोई कृष्ण
जय श्रीकृष्ण
©संकलन– संदीप चोपड़े, सहायक संचालक विधि प्रकोष्ठ, बिलासपुर, छग