लेखक की कलम से

इस्लामोफोबिया और चयनात्मक पत्रकारिता …

आज पूरा विश्व गम्भीर कोरोना समस्या से जूझ रहा है। हमारा भारत जो विश्व की दूसरी बड़ी जनसंख्या वाला भारत है अपने सीमित संसाधनों से पूरी ताकत लगाकर इस बीमारी को हराने में लगा है। भारत का हर वर्ग हर समुदाय केंद्र सरकार के साथ कदम से कदम मिला कर चल रहा है, लोग लॉकडाउन में अपने घरों में बंद हैं। व्यवसाय, कारोबार, कारखानें बंद हैं, कॅरोना योद्धा मरीजों की पहचान कर उनका उपचार में दिन रात लगे हैं। कुल मिलाकर सारा भारत इस मुसीबत की घड़ी में एक परिवार की भांति एकजुट होकर अपने स्तर पर वांछित योगदान दे रहा है। किंतु पिछले कुछ दिनों से मरकज़ और जमातियों ने जो रायता फैलाया है उसने भारतवासियों के सामूहिक प्रयास पर पानी फेर दिया है। जमात से संबंधित जारी किए गए आंकड़े चौंकाने वाले हैं, वे इतने पर भी वे बाज़ नहीं रहे, बीमारी फैलाने के साथ ही, हॉस्पिटल्स से भाग रहे हैं, डॉक्टर्स, पुलिस और स्वास्थ्य कर्मियों पर हमला कर रहे हैं, थूक रहे हैं, अश्लील हरकतें कर रहे हैं।

आख़िर कब तक पुलिस और डॉक्टर्स पर हमले सहेंगे हम और क्यों ? क्या उनके कोई मानवधिकार नहीं है ? इंदौर, मोरादाबाद और अब टोंक ? क्या ये शांतिदूतों द्वारा मोबलिचिंग नहीं है? पहले हरियाणा और अब दिल्ली के LNJP हॉस्पिटल में नर्सों के साथ अश्लील व्यहवार किया जमाती रोगियों ने, मुझे यह समझ नहीं आता कि बात-बात पर अदालतों के दरवाजे खटखटाने, अपराधियों की फांसी रुकवाने की अर्जियां लगाने वाले समाजसेवी कहा लुप्त हो गए ? दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालीवाल कहां शीत निद्रा में लीन है ? राष्ट्रीय महिला आयोग क्यों चुप है ? स्वतः संज्ञान लेने वाले न्यायधीश क्यों चुप है ? किसी टुकड़े टुकड़े गैंग ने धरने की बात नहीं की ? अवार्ड वापसी गैंग भी चुपचाप बिलों में घुसी हुई है, क्यों ?

स्वयं सिद्ध दिल्ली सरकार भी मूक दर्शक बनी हैं ? क्या ये नर्स महिलाएं नहीं है ? या इनके मानवाधिकार नहीं है ? पालघर में दो साधुओं व उनके ड्राइवर को भीड़ ने मार डाला, सोशल मीडिया से ये खबर उजागर हुई, वरना महाराष्ट्र सरकार ने तो इस मामले को दबाने की भरसक कोशिश की, नतीजतन 16 अप्रेल की घटना 19 अप्रेल को सामने आई, हम सबने सुना व्यक्ति विशेष का नाम, बार-बार भीड़ कह रही थी साधुओं को मारने के लिए, लेकिन किसी भी मुख्य चैनल ने इस खबर को नहीं दिखाया और प्रिंट मीडिया ने खबर छापी भी तो 3 चोर मारे जाने की ऐसा क्यों हुआ ? मरने वालों की और मारने वालों की दोनों की पहचान छुपाई क्यों गयी ? पुलिस की भूमिका भी संदिग्ध है। किन्तु जब भी इस प्रकार जे सवाल उठाए जाते हैं तो हमें साम्प्रदायिक घोषित कर दिया जाता है, जब RSS की निंदा हिन्दुओं की निंदा नहीं है, निहंग की निंदा सारी सिख जाती की निंदा नहीं मानी जाती तो फिर जमात की निंदा सारे मुस्लिम समुदाई की निंदा कैसे हो गई? ये सारे सवाल पूछने से हम साम्प्रदायिक कैसे हो गए?
हिन्दू की हत्या और मोबलिचिंग की बात करे तो हमारे लिए छद्म धर्म निरपेक्ष व बुद्धिजीवियों के गढ़े हुए शब्द इस्लामोबोफ़िया का बार- बार उपयोग किया जा रहा है, जिससे हमारा मनोबल कमजोर हो, हमारी आवाज दब जाए, वैसे भी इस भारत का मीडिया हमेशा से चयनात्मक पत्रकारिता करता रहा है, हिन्दूओं की मौत न यहां खबर बनती है, न ही उन्हें न्याय मिलता है, जो गिनी चुनी आवाज़े उठती है न्याय के लिए उसे बड़ी चालाकी से छद्म पत्रकारों और बुद्दिजीवीयों द्वारा झूठा बताकर, या दुष्प्रचारित करके चुप करा दिया जाता है। इस भारत में यदि मृतक हिन्दू हो तो उसके कत्ल से किसी को डर नहीं लगता बल्कि उनकी मौत गलतफहमी कही जाती है, हां यदि मृतक अल्पसंख्यक समुदाय से हो तो भारत का लोकतंत्र तुरन्त खतरे में पड़ जायेगा, ये भारत रहने लायक नहीं बचेगा, मानव अधिकार वाले तुरन्त रुन्दन कृन्दन करने लगेंगे, केंद्र सरकार करोड़ों का मुवाज़ा देगी।

आखिर कब तक ये दोहरे मापदंड लेकर चलोगे? क्या सच को सच कहना अपराध है? कानून सबके लिए समान है तो ये दोगलापन बहुसंख्यक कब तक झेलेंगे और क्यों? ये सारे सवाल मैं आप पर छोड़ती हूँ, इनके जवाब खोजिए। अंततः ये सनद रहे अनेकता में एकता इस भारत की पहचान है, हम वसुधैव कुटुम्बकम में विश्वास करने वाले है, सारा विश्व हमारा और हम विश्व बंधुत्व के अनुयायी है, तो आखिर इतनी कटुता क्यों आ गयी ? सच को सच कहने की हिम्मत करो, हिन्दू, मुसलमान, सिख, इसाई मत बनो। इंसान बनो।

©शीतल रघुवंशी, अधिवक्ता, दिल्ली उच्च न्यायालय

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