लेखक की कलम से

चिंता …

 

खुद के अंदर उठता शोर,

इच्छाओं ने मारा जोर,

न सोचा, न पहचाना,

इच्छाओं का ओढ़ा खज़ाना,

देख दूजे को,

दिल मांगे मोर,

इस मोर का बड़ा है शोर,

भीतर शोर, भर शोर,

कुछ भी तो जाने और,

आमदनी हो अठन्नी,

पर खर्चा तो बना रुपैया,

इच्छाओं ने देखो,

भुलाया बाप भुलाया भैया,

चिंता का ये सिरमौर,

इच्छाओं का चला जो जोर,

कामना तो बहुत है सीखा,

खर्च करने में खाये धोखा,

यही तो सब उलझा पुलझा,

फिर कोई हल न सुझा,

जो रोके आज ये जोर,

बंद हो चिता का शोर,

शोर, शोर ये शोर ही शोर,

शाम, दोपहर या हो भोर।।

 

©अरुणिमा बहादुर खरे, प्रयागराज, यूपी            

Back to top button