लेखक की कलम से
गूंगी कहानी …
पहली बार मिले थे हम
तो उस ने कहा था
तुम मेरी मंज़िल हो
तुम को पा लिया मैं ने
खुशी से मैं फूली न समाई
सिमट गई उसकी आग़ोश में बेसुध हो कर
दिन गुज़रे
मौसम बदले और शहर भी बदला
रूप रंग भी बदल गया है
वक़्त नही है इक दूजे की ख़ातिर अब तो
वक़्त पे उठना, जॉब पे जाना
थके हारे फिर शाम को आना
जोड़ना और घटाना जीवन की
मांगों को
करवट बदल के सो जाने भर
रात है सारी
जिस्म को थोड़ा चैन तो मिल जाता है लेकिन
आत्मा पर बे चैन है रहती
मुझ से है कहती
यही है क्या जीवन
जिसकी आशा थी तुम को
रिश्तों में लापरवाई ऐसी क्यों आती है
लड़की से बहु और बहु से माँ बन जाना
ठीक है
लेकिन
बाकी घर की ज़िम्मेदारी में हिस्सा ,,, औरों का भी है
बेटी हूँ
बीवी हूँ
माँ हूँ
इक औरत हूँ
लेकिन
घर बाहर की ज़िम्मेदारी ख़त्म है मुझ पर
ऐसा क्यों है?
©अल्पना सिंह, शिक्षिका, कोलकाता