लेखक की कलम से

आत्महत्या…

टूट गया तू संघर्ष पथ से,

चला जीवन गंवाने को,

भटक गया निराशाओं में,

कायर बन भाग जाने को।

 

भूल गया क्या तू सब,

संघर्षों ने सुमन खिलाये है,

इस प्यारी वसुधा में ,

कष्टों ने विजय पथ बनाये है।

 

भूल गया जो तू सब,

पलट जरा अतीत के पन्नों को,

पढ़ जरा महापुरुषों की गाथा,

खुद जरा संवरने को।

 

राजा हरिश्चंद्र रह गए अकेले,

पर सत्य पथ था न छोड़ा,

वीर महारणप्रताप ने,

कष्टों से सदा ही खेला।

 

देख जरा जानकी सीता,

कितना कष्ट उठाती थी,

पर आशाओं के दीपक,

वह सदा ही जलाती थी।

 

क्या तू इतना है कायर,

तैयार देह तज जाने को,

देह नष्ट कर सोच रहा,

तू नवजीवन पाने को।

 

देह वस्त्र है तेरा,

अस्त्र शस्त्र भी तेरा है,

तेरे इस कायरता से,

कष्ट तुझे ही तो होगा।

 

आत्महत्या नहीं दुःखों का अंत,

ये दुःखों का प्रारंभ है,

देह नष्ट कर,बिन वस्त्र,ठिठुरन सा,

ये बस कष्टमयी जीवन है।

 

तो उठ फिर,

कवच वीरता का पहन,

ले आशाओं का अस्त्र शस्त्र,

हर दुख को अब हरा।

 

बना नहीं तू हारने को,

हार को अब तू हरा,

संकल्प संग तू चल जरा,

कष्टों में भी मुस्कुरा।

 

कौन टिक सकता सम्मुख तेरे,

जो मुख पर मुस्कान हो,

हर दुख हरने के भाव संग,

मुख पर विजयी शान हो।।

 

©अरुणिमा बहादुर खरे, प्रयागराज, यूपी

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