लेखक की कलम से

लोक जीवन की अनुभूति में गहराई तक डूबा कवि : त्रिलोचन

 

त्रिलोचन लोक के कवि हैं। विशेष बात तो यह है, कि उन्हें लोक गीतों, लोक कथाओं आदि से गहरा लगाव बचपन से ही रहा है। अपने घर और गाँव की बोली में लिखना, उनका बचपन का शौक़ था, और रचनाओं में यह लगाव बराबर नज़र आता रहा है। धरती, दिगंत, ताप के ताए हुए दिन प्रत्येक असरदार संग्रह की रचनाओं में लोक कला की विशेषता देखी जा सकती है।

त्रिलोचन अपनी रचनाओं को जन जीवन के योग्य बनाते हैं। वाणी प्रकाशन से प्रकाशित उनके काव्य “अमोला” ने तो यह साबित कर दिया है कि त्रिलोचन कभी भी शहरी नहीं बने, उनकी रचनाओं ने कभी भी अभिजात्य बाना नहीं पहना। अमोला की कविताओं से त्रिलोचन का रिश्ता नया नहीं है। उन्होंने 13 वर्ष की आयु में ही बहुत से लोक गीत लिखे थे। वे कहते हैं-:”तेरह साल का था, सैकड़ों लोक गीत याद थे। ऐसे ही गीत रच देता था।”

ये गीत लोक गीतों की अनुवृत्ति नहीं होते थे, उससे भिन्न मौलिकता उनमें थी। अमोला का घर और बाहर का रिश्ता अचानक 1990 में त्रिलोचन के कवि ने नहीं खोज लिया है। घर और बाहर, पृथ्वी और आकाश का, एक दूसरे से सहयोगी रिश्ता रहा है। त्रिलोचन की मानसिकता देश की आज़ादी के समय खेतों में स्त्री-पुरुष का मिलकर सहयोगी भाव रहा था।

धरती की कविता में स्त्री-पुरुष उसी सहयोग पद्धति से बँधे हुए इंसान हैं। दिगंत कविता में स्त्री-पुरुष, प्रकृति, देश, राष्ट्र और अंतर्राष्ट्रीय वाम सरकार की कई स्तरीय पद्धतियाँ त्रिलोचन के कवि हृदय ने विकसित की हैं। अकोला उस सहयोगी परम्परा का मानवीय निष्कर्ष है।

त्रिलोचन जितना अपने गाँव, घर और समाज को जानते हैं उतना ही वे आदमी और आदमी की क़िस्मों को भी जानते हैं। अनुभव की गहराई और मानवीय संवेदना उन्हें सबका अपना बना देता है।

“किसिम-किसिम के मनई जइस सोहाय

तइस के आपन कई, ओकर होई होम। ”

त्रिलोचन का मानस जनवादी परम्परा के अनुसार समूह और समाज में एकाकार हो गया है। एकाकीपन का भाव उनकी रचनाओं में कहीं नहीं है। लोक का कवि कभी भी व्यक्तिवादी हो ही नहीं सकता। अकेले रहकर केवल अपने लिए जीना जीवन के लक्षण नहीं हैं।

“जियतन बनई अकेले जे रहा अकेल

जै दिन रहा जनात रहा अकेल। ”

गाँव की बोली में कही गई उनकी बात उनके सहयोगी सिद्धांत को शब्द देती है। त्रिलोचन अवधि की बोली का संस्कार अमोला की रचनाओं को देते हैं। अमोला की भाषा को स्वयं त्रिलोचन ने पूर्वी अवधि की एक बोली कहा है। निराला को तुलसीदास से अवधि की विरासत मिली। अवधि की धरती को वे अच्छी तरह जानते हैं, और यह भी अच्छी तरह जानते हैं कि धरती-धरती है, वह अपना अस्तित्व बनाए रखती है, उसकी गरिमा में कभी फ़र्क़ नहीं आता….

“पृथ्वी बिरसई कबहु न आपन नाल

दिन बीतई रितु बीतई बीतई साल। ”

उनकी रचनाओं में अवधि की ठेठ बिरहों की लोक सुगन्ध आती है-

“तोहरे बिछुरे जिउ होई जात उदास

अउति आई मन बिसरई भूख पियास। ”

त्रिलोचन उन ख़ास कवियों में से हैं जो समूची धरती को अपना घर मान लेते हैं। बाबा नागार्जुन और केदारनाथ अग्रवाल में भी ऐसी ही विराट अनुभूति के दर्शन होते हैं। त्रिलोचन के लिए धरती विराट घर है। आसमान विराट छत है, इसीलिए धरती की अपनी भाषा, अपने घर की बोली उन्हें ज़्यादा प्रिय है। अपनी बोली का रस भी वही जान सकता है जो इसके लिए रचा, बसा और पूरी तरह पगा हो-

“भाषा उहई, हई समइई कहनाय

पावई उजेकर नग़ीच रहताय। ”

प्रकृति और गाँव में त्रिलोचन का मन हृदय की गहराइयों से रमा है। धूप और धूल में काम करते आदमी के प्रति वे बहुत चिन्तित हैं-

“चरिउ और होई चन्नासा धाम

क्यूँ निउरई ज्यू टारा जाई न काम। ”

ठीक यही अभिव्यक्ति त्रिलोचन की अन्य रचनाओं में मिलती है। तात्पर्य यह है कि बड़े लोग धूप-धूल में कार्य करते नहीं। धूप और धूल में निकलना उनके लिए ज़रूरी भी नहीं। किसान और मज़दूर धूप में काम करते हैं, धूप उन्हें रास भी आती है-

“झोंकरि के पाती

डौंगी जाई झुराई

पेड़ तर के सोचेसि

आगि जगाई

पेड़वा बहुत ना ओतुरि उचकावीति जाई

दौ की छौ कि के जे अवरा यह बाढ़

तेजऊ रहिगा अपनेऊ जानै गाढ़। ”

त्रिलोचन का यह अनुभव उन्हें गाँवों से मिला है। उनमें कहीं तुलसीदास की सी गहरी अनुभूति है, विचारों की प्रौढ़ता है तो कहीं निराला जैसी सहजता और क्रांति चेतना दोनों का सम्मिश्रण हो गया है। वे मज़दूर को खेतों में पानी देते हुए देखते हैं-

“पानी उबहत बहत जहाँ पेटाई

ठेउका ठेउका से पहुँचावत जाई। ”

अमोला का बरबै छंद तुलसी की कविता की याद दिलाता है। श्री विश्वनाथ त्रिपाठी ने माना है कि-

“अमोला त्रिलोचन की सबसे सहज कृति है। यूँ यह सहजता उनकी जन चेतना के निकट पहुँचने का प्रयास है और त्रिलोचन के कवि को इसमें सफलता भी मिली है। त्रिलोचन की कविता का मानदण्ड गाँवों के वातावरण को बराबर ध्यान में रखे हुए है।

भक्ति युग में कबीर की यथार्थ चेतना और सहज कथन जो मानस पर सीधे असर डालती है के प्रतिछवि त्रिलोचन की रचनाओं में आ जाती है। कबीर की अनुभूति इतनी अधिक व्यापक होने के कारण उनका विराट अनुभव ही तो था, ठीक यही बात त्रिलोचन के लिए भी उचित लगती है।

अमोला में लोक जीवन का संसार है वे लोक के रचनाकार हैं-

“जै करे तरानि केश उर्दू खोज

उठि भिनसारे हेरत जाये रोज। ”

अतः यह कहा जा सकता है कि त्रिलोचन का जन जीवन सच्ची अनुभूति में गहराई तक डूबा है। गाँव, घर की बात जब कविता बन जाती है तो ऐसी रचना जन जीवन के उतने निकट आ जाती है जितनी ख़ुद की ज़िंदगी। वस्तुतः त्रिलोचन और जन जीवन दोनों एकाकार हैं। गाँव और गाँव के आदमी स्वयं त्रिलोचन हैं और यही उनकी मानवीय ईमानदारी भी है। त्रिलोचन मानते हैं कि कहना और प्रतिक्रियाएँ कभी नहीं रुकीं, परंतु कहीं न कहीं आदमी एक तरह की ज़िंदगी भी जीता है, सब अपने सुखों के लिए भागते हैं-

“वह मोहन आनंद कहाँ हैं,

जो सबका है,

जिसके लिए अधीर आज,

हम तुम या वे हैं”

जन कवि का काम यह है कि वह अपनी रचनाओं के माध्यम से दबी घुटी जनता के बीच ऐसी चेतना जाग्रत कर दे ताकि वे अपनी अहमियत समझें, अपने मूल्यों को पहचाने बाक़ी की लड़ाई तो वे ख़ुद लड़ सकेंगे। कवि उस ग़रीब आदमी को समझना चाहता है-

“कल तुम्हें जिसने बुलाया था

क्या वहाँ, तुमने कुछ पाया था?

या केवल चाहते थे कान वे

शब्द-शब्द-शब्द रहे दान वे,

जी अलग तुम्हारा अकुलाया था। ”

ये पंक्तियाँ किसान, मज़दूर वर्ग के लिए कहीं गईं हैं, जो बड़े लोगों के बहकावे में आते हैं, उनकी चिकनी-चुपड़ी बातों में आ जाते हैं।

असलियत को जब तक ये गाँव के लोग समझ पाते तब तक स्वार्थी तत्व अपना मतलब पूरा कर चुके होते हैं। त्रिलोचन इसीलिए इस जन समुदाय को समझाते हैं, उनमें चेतना जाग्रत करना चाहते हैं। ’काठ की हांडी तो बार-बार चूल्हे पर नहीं चढ़ाई जाती, एक बार में उसका कार्य समाप्त हो जाता है। माड़ी चढ़ाया कपड़ा तभी तक कड़ा रहता है जब तक उसको धो न दिया जाये। कवि चिंतित है न जाने क्यों गाँव के लोग इस बात को समझ नहीं पाते-

“तब असलियत दिखाई देती है

अधिया की खेती और पुआर की अगिनी आँखों को ही भरमाती है

धोखा धड़ी अनर्थ क्रिया की

होती हैं पचास पर्तें।

मैं इसका मोही कभी नहीं था।

यहाँ आदमी हरदम नंगा दिखाई देता है-

चोरी सीना जोरी,

साफ़-साफ़ मिलते हैं”

त्रिलोचन ने शोषण के रेशे-रेशे को पहचाना है, उसके हर ढंग को वे जानते हैं। वे यह भी जानते हैं कि गाँव का किसान अपनी खेती फ़सल देखकर चाहे जितना प्रसन्न हो ले अंत में तो उसे वही भूख, वही अभाव ही मिलता है। ये कैसी दीवारें हैं, कैसे बंधन हैं जिन्हें गाँव का जन जीवन कभी तोड़ नहीं पाता-

“दीवारें-दीवारें-दीवारें-दीवारें,

चारों ओर खड़ी हैं,

तुम चुपचाप खड़े हो,

या धरे छाती पर मानों वहीं गड़े हो,

मुक्ति चाहते हो तो आओ धक्के मारें,

और ढहा दें, कभी न हारें,

ऐसे-वैसे आघातों से। ”

त्रिलोचन कहते हैं की गाँव का आदमी हमेशा संकोच में जीता है। हिचक कभी उसकी जाती नहीं है। जैसे किसी दुविधा में जी रहा हो। वे किसानों, मज़दूरों का आह्वान करते हैं-

“आओ अलगाने वाले अवरोध निवारें

बाहर सारा विश्व खुला जय वह अगवानी

करने को तैयार खड़ा है पर यह

कारा तुमको रोक रही है क्या तुम रुक जाओगे

नहीं करोगे ऊँची क्या गरदन अभिमानी। ”

कवि चाहता है की जनमानस विश्व के समक्ष सिर ऊँचा करके चले और समस्त दबावों की कारा तोड़ दे।

त्रिलोचन की कविता इस बात का प्रमाण है कि संकीर्ण या एक पक्षीय दृष्टिकोण लेकर बात नहीं करते अपितु उनकी कविता का व्यापक संसार भारत से लेकर विश्व सीमा तक जाता है। उनकी कविता तुलसी और निराला जैसे जीवन मूल्यों की बात करती है तो वे गाँव से लेकर राष्ट्र की समस्याओं तक सोचते हैं। उन्हें लगता है, हाथ पर हाथ धरे हिंदुस्तान की जनता बैठी है-

कभी-कभी सोचता हूँ

“देखो राम या अल्लाह किसके पल्ले बाँधते हैं हम सबको

हिंदुस्तान ऐसा है, बस जैसा-तैसा है। ”

मन के दुख दर्द आदमी बराबर वालों में बाँटता है। बड़ों या महलों वाले लोग रोटी और भूख की बात क्या समझेंगे, कैसे समझेंगे वे उस किसान की पीड़ा, जो दिन रात, धूप और वर्षा में अपने खेतों में काम करता है। इन बातों को महसूस करता कवि कहता है कि मैं अपने जैसों के लिए गीत लिखता हूँ। यदि कवि अपने जैसों के लिए गीत न लिखे तो जो उसके अपने हैं एक दिन वे भी छोड़कर चले जाएँगे। आदमी अकेले में अकुलाता और संगी साथियों तथा अपनी ही स्थिति के लोगों के बीच अपने अभाव भरे क्षण बाँट लेता है। अपने सब रहस्य उन्हें सौंप देता है, क्यूँकि कवि जानता है-

“एक बात जानता हूँ मैं कि तुम आदमी हो

जैसे हीं मैं जो कुछ हूँ, वैसे ही तुम हो, ”

भूख प्यास से जो कभी कहीं कपट पाओगे

तो अपने से आदमी को ढूँढ सुना जाओगे।

और मानव की ऐसी सामूहिक चेतना जाग्रत हो जाएगी तब आदमी विघ्न विरोध से भागेगा नहीं। अपनी अंतिम विजय के लिए संघर्ष करेगा। तब उसके रक्त में भी उबाल आएगा। तब उसकी जिजीविषा गीत जाग्रत होगी, तब गाँव-गाँव में घर-घर में जिजीविषा के गीत जाग्रत होंगे। ऐसा जन कवि जन संघर्ष जाग्रत करने वाला रचनाकार जब देखता है की रचनाकार आज भी धनिकों के मन बदलाव के लिए वासना के गीत लिख रहे हैं, तब वह दुखी हो जाता है। वह व्यंग करता है ऐसे रचनाकारों पर जो धन के टुकड़ों पर क़लम बेचते हैं-

कवि-“खा-खा कर तुम धनिकों के फेंके टुकड़े

गान वासना के गाते हो, तुम जीवन का,

सत्य कहाँ से देख सकोगे, इनको टुकड़े

पर भी कभी कोई न पूछेगा। ”

(अनकही भी कुछ कहनी है)

साधरणीकरण के बग़ैर कविता का मूल्य कौन समझेगा।

यह सही है कि जब देश का ग्राम्य समाज अपने संघर्षों से जूझ रहा हो, जब रोटी के लिए आदमी तरस रहा हो तब प्रेम या वासना के गीत लिखना उस समाज के साथ बेईमानी है जिसका कवि एक अंग है और जिसका बयान करना रचनाकार का दायित्व है।

वस्तुतः भोग विलास की रचनाओं का असर अब जाता रहा है। अब देश और समाज खेतों और खलिहानों का मूल्य समझता है। वह खेतों और कारख़ानों में रहती जीवन धारा को पहचानता है। अब जीवन सत्य आँखों के सामने उजागर हो चुका है। एक ईमानदार रचनाकार अपने देश के जन जीवन से जुड़कर चलना ही अपनी रचना की सफलता मानता है। त्रिलोचन ने इस जीवन सत्य को पहचाना है। उनकी भावनाएँ गहराई तक अपने परिवेश से जुड़ी हैं और उनकी रचना जन जीवन की अपनी रचना है।

©डॉ. प्रीति प्रवीण खरे, भोपाल मध्य प्रदेश

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