लेखक की कलम से

पिता …

आजकल बिहार में लगातार बारिश हो रही है। रुकने का नाम नहीं, पुराने दिनों की तरह। जैसे बचपन में कहते थे सोमवार से शुरू हुआ है तो सोमवार को ही ख़त्म होगा। कल जब बैंक गया तो हमारे वरिष्ठ सहकर्मी शराफ़त हुसैन बोले- स्कूल की तरह ‘रेनी डे’ कर दिया जाए, तो कितना अच्छा होता? मैंने कहा- अब कहां वे मासूमियत भरे दिन! फिर मैंने कहां पहले सर पर पिता का हाथ होता था, तो सब अच्छा लगता था, सब दिन वसंत की माफ़िक़। पर अब कहां वे दिन।

सच में पिता बनकर ही लोग पिता को महसूस करते है। जीवन आपको पिता की भांति कर्मवान बनने को प्रेरित करता है ताकि आप अपने कर्तव्य-पथ पर रंग भर सके। अपनों के जीवन में ख़ुशियाँ ला सके। वास्तव में व्यक्ति के जीवन में पिता की सीख और आशीर्वाद का शब्दों से परे महत्व है। पिता घर की आधारशिला होते है, नींव होते है। ??

इस अवसर पर अपनी स्वरचित कविता की याद आई, जो पिता को समर्पित है।

 

 

यूँ तो दो अक्षरों का मेल

दोनों ही व्यंजन

शायद इसीलिए

भौतिकता के प्रतीक माने जाते

पर इनका त्याग अजर-अमर-अविनाशी

 

पर पिता होना इतना आसान भी तो नहीं

ईश्वरीय कृपा

पिता यानी पथ-प्रदर्शक, संरक्षक

जिंदगी की पगडंडियों पर संभालने वाले

जिनके बिना जिंदगी बंजर-सी, सूखी-सी

यूँ तो वह दूर से पत्थर, अबोला,

पर पास में ममता, स्नेह की विशाल बरगद –सी छाया

 

पिता

जिसे हमने दूसरों की नजर से देखा,

कभी अपनी माँ की नजरों से

कभी अपनी स्वार्थ की नजरों से

 

पर

पिता तो सबसे ऊपर है

क्योंकि वह नश्वर है।

 

©डॉ साकेत सहाय, नई दिल्ली                                        

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