लेखक की कलम से

शाम ढले माँ …

शाम  ढले  माँ  तुम  याद आती,

आंखों से दिल में यूं समा जाती,

 

वो प्यार भरा स्नेहिल मुखड़ा तुम्हारा,

देता  था  दिल  को  सहारा   तुम्हारा,

वह भोली सी निश्चल मुस्कान तुम्हारी,

हरती     थी    सारी   विपदा   हमारी,

शाम ढले माँ ….

 

वह  फोन  पर  हेलो   हेलो    सुनना,

उठ  गईलू  बबुनी  धीरे  से    पूछना,

थक गईलू बबुनी विस्मित हो पूछना,

का करलूं बहिनी चिंतित हो   पूछना ,

इन  प्रश्नों  से मिलता मन को सहारा,

शाम ढले मां….

 

 

कितना  कुछ अपने बारे में  बताती,

वो भाभी और भैया की बातें पुरानी,

वो बाबूजी का तुम पर निर्भरता होना,

स्वास्थ्य की उधडी बखियों को बुनना,

शाम ढले माँ….

 

पूरा   स्कूल  का  हाल  तुम लेती,

घर-परिवार की  जांच तुम करती,

मन के अनकहे को चुपके से सुनती,

आवाज़ के स्वर से सब कुछ बुझती!

शाम ढले माँ…..

 

कहती  थी  मैं   हूं   रानी   तुम्हारी,

बड़ी कोमल-मासूम कहानी तुम्हारी,

सिखाती सब,जिससे मैं छल न जाऊँ,

बताती थी बातें जिसे मैं आजमाऊँ!

शाम ढले माँ…..

 

मेरे नाज और नखडे, तुम ही उठाते,

गुस्सा जो होती,तो तुम मुझे मनाती,

कॉल पर काँल करके , तुम  कहती,

प्राण   हूँ   मैं  ,  तुम  हो  देह  मूर्ति!

शाम ढले माँ….

 

बस इतना था सुनना,होती मैं खुश,

बाहों में भर्ती  और  उड़ती  में  फुर्र,

मां बस मेरी मां तुम, मैं यह  कहती,

दोनों मिल गलबहियाँ देर तक हंसती!

शाम ढली माँ….

 

जीवन तुम बिन  सूना  सा  लगता,

पत्ते बिन जीवन यह ढूंढ सा लगता,

यादों की  दुनिया  है  खूब  निराली,

बसाती नित्य जीवन तुम संग साची!

शाम ढले मां….

 

जीवन में यादों का अवलंबन ही पाया,

उसी  हाथ  धरे  हर  दिन  आजमाया,

मां तुम प्राण मेरी हो,मैं देह कर्म छाया,

यादों में है अब मेरे जीवन  की  माया!

शाम ढले तुम…..

 

©अल्पना सिंह, शिक्षिका, कोलकाता                            

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