लेखक की कलम से

धुंधला दर्पण …

यादों में आते – जाते नहीं अपनी इच्छा से,

इसीलिए..

वहीं द्वार पर कहीं,

अपने होने के अहसास को,

छोड़ जाती हूँ चुपचाप,

घर की दीवारों में दिख जाते,

उसके होने के लम्हे,

यह जानबूझ कर तो नहीं करता न!

एक इंसान की यह स्वाभाविकता है,

इसलिए…..

वह वापिस आने के,

अपने सारे रास्ते खुले छोड़ जाता है..

वह जाता नहीं हमेशा के लिए,

अपनी रूह की छोटी-छोटी कतरनें,

टांग आता हैं द्वार के ऊपर,

ठीक कुंडी और सांकल के बीच,

ताकि भूल न जाएँ वह उसको ,

और वह इस घर को,

जिसमें आते ही उसकी रूह,

उसे उसके होने का वजूद सौंप देगी,

वह जाता नहीं,,,

अपने होने के सभी यक़ीन को जिंदा रखता है…

इच्छा से…

यक़ीन को ज़िंदा रखना मायने रखता है,

उसका जाना नहीं….

 

©आकांक्षा रूपा चचरा, कटक, ओडिसा                         

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