लेखक की कलम से

मध्य का आईना …

24 मार्च को लॉकडाउन की घोषणा हुई और 26 मार्च 2020 से ही कामगारों का पलायन शुरू हो गया। अलग-अलग प्रान्त के कामगारों ने बिना किसी आपसी संवाद के एक-सा निर्णय कैसे ले लिया ? यह आचम्भित करने वाली घटना है।

हर मजदूर के पास एक बुनियादी ज्ञान होता है, बिना काम जीवन संभव नहीं है। जहां इन्हें काम की आशा होती है ये बढ़ जाते हैं। किसी चमत्कार की आशा में ये एक दिन भी खाली नहीं बैठते। हर्ष का विषय ये है कि इनका बुनियादी दर्शन/ज्ञान सूचना क्रांति से निर्मित विविध धारणाओं के बीच एकरूप रहा। आप किसी भी प्रान्त, भाषा, धर्म के मजदूर को देखिये, कोई भी मंच रहा हो इन सब के जवाब में कमाल की समानता थी। वैसे ही सटीक और वैज्ञानिक जैसे पानी 100.C में उबलता है। “काम नहीं मिलेगा तो खाएंगो कहां से” ? बीमारी से पहले भूख से मर जाएंगे, गांव में कुछ खेती-बाड़ी करेंगे। इसने व्यापक आत्मरक्षा आंदोलन खड़ा कर दिया।

इनका बुनियादी दर्शन डार्विनवाद से भी मेल खाता है। “survival of fittest” प्रभाव ये रहा की अख़बार के मेन एस्ट्रिम मीडिया में, सोशेल मीडिया में सब पर ये छा गए, बिना किसी #हेश टेग के। इनका मुद्दा देश का मुददा बन गया, इस बीच मध्यम वर्ग या ज्यादा स्पष्टता से कहूं तो निचला-मध्यम वर्ग TV की कहानियों का रस ले रहा था। फिर पक्ष-विपक्ष बन आपस में गुत्थम-गुत्था होते रहे। पूरे 45 दिन नूरा-कुश्ती चलती रही। उसकी चिन्ताएं खबर से गायब थीं। 21 फिर 14 दिन फिर 14 दिन और फिर 14 दिन।

अब फोन कॉल पर इन भाइयों (मध्यमवर्गी) के सुर और तेवर बदलने लगे हैं। 45 दिन बाद जब नींद चटकी तो कोरोना संक्रमितों के आकड़ों पर उनका खाली होता बैंक अकाउंट भारी पड़ने लगा। अब चिंता है बिजली के बिल की, मकान के किराये की, EMI की और स्कूल के फीस की लेकिन अब बहुत देर हो चुकी है। अपनी आवाज उठाने की क्षमता की विफलता आंकलन कीजिए। आप हर जगह नकार दिए गए। इन मजदूरों की तरह हमारा कोई बुनियादी दर्शन था ही नहीं। हम fiction का मजा ले रहे थे। कभी किम जॉन की मौत के रहस्य में, अभी बुहान का सच ढूंढने में आदि….। ठीक उसी समय में मजदूर विकट बाधाओं को धता बता कर लौट रहे थे, अपनी जड़ों की ओर …।

मजदूर का एक अपना बुनियादी अर्थशास्त्र भी है, वह शहर की चकाचौंध के झांसे में नहीं पड़ता और जो कुछ भी अर्जन करता है अपने कठिन श्रम से उससे विकसित करता है, अपने गांव का ढांचा और आज वो गांव की ओर बढ़ रहा है अपने उसी विकसित ढांचे के विकल्प पर। हर माध्यम वर्ग से बहुत सयाना है ये मजदूर। इस महा-पलायन में एक सबक है हमारे लिए, शायद हम मध्यमवर्गी चेत जाएं ….

©सायमा अमित, हाईकोर्ट अधिवक्ता, लखनऊ, उत्तरप्रदेश

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