लेखक की कलम से

अवसर पर थूकना हमें नहीं आता …

व्यंग्य

हम काले हैं ! यह सदियों पहले गोरों ने हमें बताया। हमने बिना आनाकानी किए मान भी लिया। फिर बाजार में उतरी फेयर एंड लवली और फेयर एंड हैंडसम क्रीम ने समझाया कि काला होना अच्छी बात नहीं। हमने इसे भी मान लिया। क्रीम लगाकर गोरे होने का मुगालता भी पाल बैठे। फिर हम प्यार करने लगे -गोरे रंग से! काले कारनामों से! कालाबाजारी समेत काली करतूतों से!

जहां-जहां यह सब होता हम सिविलाइज्ड सोसायटी के नुमाइंदे इनमें खुद को इंवॉल्व पाते! दुनिया में हमसे बढ़कर कालाबाजारी और हमसे चढ़कर काली करतूतें कोई करे तो भला! बस, जरूरत है तो हल्के से मौके की गुंजाइश! फिर देखो! कैसे उम्दा सौदेबाजी के चौके छक्के लगाते हैं! अठ्ठा और दस्सा भी लगाते है, लोक बोली में इस्तेमाल नहीं होता यह अलग बात है।

यकीन ना हो तो इतिहास मैं गूंजी उन चीखों को सुनो जो बंगाल के अकाल को ‘मैन मेड’ कहती है। दाल, चावल, गेहूं को बोरे भर भर गोदामों के हवाले किया। भूखी जनता दम तोड़ती रही, उधर ऊंची कीमतों पर चावल बिकता रहा – ये अनुभव के काले उजाले हमारी काली करतूतों के शफ़्फ़ाक गवाह हैं। भला दूर क्यों जाना! हर साल 20 रुपए किलो की प्याज डेढ़ सौ रुपए किलो तक न पहुंच जाए तो सिविलाइज्ड सोसायटी के बंदे को चैन की सांस लेने में उतनी ही कठिनाई होती है। जितनी आजकल कोरोनावायरस के मरीज को।

प्याज का ‘बढ़िया भाव’ लेना इसकी जद में है,पर यह भाव किसान को कहां मिल पाता है? ऐसे कारनामे भला कोई कर के तो दिखाए! चुक जाना आम आदमी की कमजोरी है, मदारी चुका नहीं करते। इधर चूके कि उधर खेल खत्म!

इन दिनों मेड इन चाइना वाले कोरोना वायरस को ही ले लो। यह चीन समेत इटली, ईरान, अमेरिका के लिए होगी महामारी! हमारे लिए तो यह अवसर है! अवसर भी शानदार। यहां एशिया में चीन की अर्थव्यवस्था को मात देने वाले अवसर की बात नहीं हो रही बल्कि हैंड सैनिटाइजर, मास्क की खेप को दबाकर कीमतें आसमान तलक पहुंचाने वाले अवसर की बात हो रही है। माने गोल्डन चांस!

सौ रुपए का मास्क पांच सौ में न बेचा तो कैसे दुकानदार! यह तो अवसर पर थूकना होगा और हम पान खाकर दीवारों पर थूकते हैं। गुटखा खाकर सड़कों पर थूकते हैं लेकिन सुनहरे अवसर पर थूकना हमें नहीं आता।

सरकार का चैन टूटे या सेंसेक्स समेत निफ्टी लुढ़के इससे हमें क्या? सैनिटाइजर, मास्क ही क्यों अभी तो दवाइयां, दारू, दाल, चीनी, चावल, पान मसाला समेत गुटखा के अच्छे दाम वसूलने के दिन भी आ रहे हैं क्योंकि पनघट की डगर अभी लंबी है पिया! इसी डगर पर चलते हुए कर्फ्यू के हालात पैदा करने हैं और फिर उसी कर्फ्यू में घुसकर सरकारी एडवाइजरी की धज्जियां भी तो उड़ानी है। फिर लठ पड़े तो पड़े। यह तो आए दिन का काम है।

अजी, भरतार की लाठी में दर्द कहां? बाकी सब ठीक बस, समय की स्पंदन सुनना हमारी कुंडली में नहीं हां, अवसरवादिता की कुहुक फटाक से सुन लेते हैं। वास्तव में मानवीयता सहित व्यवस्था को बारह वाट करना हमारी ही प्रयोग धर्मिता है। हम कालाबाजारी और काली करतूतों की सिविल सोसाइटी के ऐसे नुमाइंदे है जो लठ और केवल लठ के यार हैं। इनके बिना हमारा नहीं चलता।

©डॉ अनीता यादव ( व्यंग्यकार), नई दिल्ली

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