उर्मिला की पीर ….
एक तपस्विनि बनकर भोगा, महलों में वनवास ।
साँसें चलती थीं उसकी पर, रहती सदा उदास ।
मात सुनयना, तात जनक ने,दिया उर्मिला नाम ।
मिली अग्रजा सीता जैसी,धन्य बनाया धाम ।
लक्ष्मण-गले डाल वरमाला,पाई नई उजास ।
एक तपस्विनि बनकर भोगा , महलों में वनवास ।
सियाराम सेवा हित लक्ष्मण,हुए तुरत तैयार |
निश्चय किया उर्मिला ने भी,संग चलूँ भरतार |
दिया वास्ता सेवा का बस ,एक वही थी आस।
एक तपस्विनि बनकर भोगा,महलों में वनवास।
रक्षा हित भैया भाभी की,लिया एक प्रण धार |
वन में कभी नहीं सोऊँगा,हर पल करुँ जगार |
पूर्ण किया वनवास जागते,सेवक बनकर खास | एक तपस्विनि बनकर भोगा,महलों में वनवास।
मेघनाद ने निज तप बल से,पाया था वरदान |
चौदह वर्ष रात दिन जागे,वो ले सकता प्रान ।
पतिव्रता उर्मिल का ही तप ,आया सबको रास ।
एक तपस्विनि बनकर भोगा,महलों में वनवास।
दिया जानकी ने भी था वर,रक्षक होंगे राम ।
एक देह से एक साथ ही,तीन करोगी काम |
आँसू एक नहीं निकला पर ,थमी रह गई साँस।
एक तपस्विनि बनकर भोगा,महलों में वनवास ।।
©अलका शर्मा