लेखक की कलम से
समय चक्र …
किलकारियां रुदन में बदल गई
खुशियां बदल गई गम में ।
नहीं है और कुछ बस में अब
किए पर अपने सिवा पछताने के।
समय का चक्र घूमा कुछ ऐसे…
आगे बढ गए, तो कूछ छूट गए पीछे.
करवट ली प्रकृति ने कुछ यूं ,
सब कुछ समतल सा हो गया ।
अमृत मंथन की तरह, पृथ्वी को ही बिलो दिया ,
लील गई अपनी ही कृति को वसुंधरा बन शेष (नाग)
मनुष्यता तो लुप्त प्रायः थी ही ,
अब मनुष्य के भी रह गए अवशेष ।
©अनुपमा दास, बिलासपुर, छत्तीसगढ़